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एकता, चारित्रात्मक निष्ठा एवं ज्ञानात्मक श्रम के लिए यह गच्छ समर्पित है।
अन्त में सं० १८५६ में 'रत्नसोम रचित-खरतर पच्चीसी' से खरतरगच्छ का माहात्म्य दर्शाने वाले कतिपय पद्यों को प्रस्तुत किया जा रहा है, जिनमें पूर्वकथित वैशिष्ट्य का संक्षिप्त उल्लेख है
खरतर करणी साधु की, खरतर विद्या सिद्ध । खरतर लच्छी थिर रहे, खरतर मोटी बुद्ध । खरो मार्ग खरतर कहै, खरो जे पाले धर्म । खरवाते सुजश लहै, खरतर काटे कर्म ॥ खरतर खरतर क्या करो, खरतर है जिनराज । खरतर धर्म पाल्या थकी, सरेसु आतम काज ॥ खरी बात खरतर कहै, खरी क्रिया पालंत। ..... खरा साधु जिनराज ना, तिण खरतर कहत॥ खरतर शुद्ध क्रिया करे, खरतर बोले सांच । खरतर सामी धर्म ना, खरतर गुरू ने जांच॥ खरतर सुं खूब हेतकर, खरतर गुरू ने सेव । खरतर देवता जिके, खरतर सरखी टेव ।। खरतर नाम समरो सदा, खरतर देखो आप। खरतर मार्गे चालतां, लागे कोई न पाप ॥ खरतर कहलाय लियो, खरतर न पाल्यो मार्ग। खरतर नाम धरायके, कहा जायेगो भाग। खरतर शुद्ध साधु तणी, सेवा कीजो आप। खरतर जीत जग में भला, कापे भव-भव ना पाप। खरतर खरतर क्या करो, खरतर है जिन धर्म । खरतर खूब किया करो, खरतर काटे कर्म ।