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________________ साधु का मूल रूप समाप्त नहीं होता, अपितु उसमें और निखार आना चाहिये। साधुता वह विशिष्ट गुण है, जो किसी अवस्था में लुप्त नहीं होता है। यह वह मौलिक गुण है, जो सर्वत्र विद्यमान है। सोने के हम अनेक आभूषण बनवा लें, उसके विभिन्न नाम भी रख लें, उपयोग भी गले, नाक आदि विभिन्न स्थानों में करें, किन्तु हार, कुण्डल, अंगुठी आदि सभी अलंकारों में मूल सुवर्णत्व विद्यमान रहता है । वैसे ही आचार्य उपाध्याय, गणि, प्रवर्तिनी, अथवा श्रीपूज्य आदि कार्य विशेष एवं दायित्व विशेष के चलते नाम में भेद हो सकता है, किन्तु साधुता की शर्त सबके साथ अनिवार्य रूप से आवश्यक है। साधुत्व की गरिमाओं को मुख्यता देने के कारण ही खरतरगच्छ को क्रान्ति करनी पड़ी। इसके अनुसार तो साधुत्व के वैशिष्ट्य से रहित न किसी आचार्य की कल्पना की जा सकती है, न किसी उपाध्याय की। इसके अभिमत में साधु वह है, जो महत उद्देश्य की सिद्धि के लिए आचार-विचार में एकरूपता रखते हुए समर्पित जीवन व्यतीत करता है। साधुत्व की गरिमा को नजर अन्दाज कर जाने के कारण ही तो खरतरगच्छ को चैत्यववासियों के विरुद्ध आन्दोलन करना पड़ा। भगवती आराधना के अनुसार तो एक लाख 'पासत्थों' (शिथिलाचारी) की अपेक्षा एक चरित्रवान और शील-सम्पन्न साधु श्रेष्ठ है। वास्तव में ज्ञान और चारित्र के मणि-कांचन योग का नाम ही साधु है। खरतरगच्छ की यह मान्यता आज भी उतनी ही प्रेरणादायी है, जितनी इसके आविर्भाव के समय थी। (२) शास्त्रीय विधानों की पुनर्स्थापना चैत्यवासी लोगों ने अपनी सुविधा एवं मनोभावना के अनुरूप अपना आचार-व्यवहार बना रखा था। धर्म-संघ से सम्बद्ध प्रत्येक व्यक्ति को अपना आचार शास्त्र-सम्मत सिद्ध करना भी अनिवार्य है। अनुयायी लोग सामान्यतया मोले-भाले एवं शास्त्रों की
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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