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________________ के लिए असह्य है। साधु-जीवन में आचारमूलक निर्मलता खरतरगच्छ की प्रथम प्रेरणा है। खरतरगच्छ की यह मूलभूत सिखावन है कि चाहे व्यक्ति हो या संघ हो, उसे अपने बाहरी-भीतरी व्यवहारों को स्वच्छ करना चाहिये, अस्वच्छताओं को बाहर निकालना चाहिए। वस्तुतः साधु-संस्था ही संघ में मुख्य स्थान रखती है। अतः इसका आदर्श सकल संघ के लिए प्रभावक होता है। खरतरगच्छ का जन्म इसी पृष्ठ भूमि पर हुआ था। खरतरगच्छ के अनुसार हमें चरित्र की उन कसोटियों को सामने लाना होगा, जिन्हें हमारे पूर्वाचार्यों ने अपने आचरण एवं तप से सींचा है। साधु क्या होता है, कैसा होता है, उसके क्या कर्तव्य बनते हैं, उसके क्या दायित्व हैं, उसे समाज के साथ, अपने शिष्यसमुदाय के साथ, अपने आचार्य के साथ कैसा सलूक करना चाहिये, आत्महित और लोकहित के लिए किस तरह के समायोजन करने चाहिए-ये सब बातें गहराई से सोचनी चाहिये। खरतरगच्छ का कहना है कि हमें ऐसे प्रयत्न करने चाहिये, जिससे हमारी तमाम खोयी हुई बिमलताएँ लौट आये और उनका एक तेज असर धर्म एवं समाज के नव निर्माण में हो। इस गच्छ की पूर्ववर्ती परम्परा को देखने से लगता है कि इसके लिए 'क्रियोद्धार' जैसी आदर्श परम्पराओं को पुनरुज्जीवित करना चाहिये। खरतरगच्छ श्रमणवर्ग और श्रावकवर्ग के अन्तरलक्षी उद्देश्यों को कभी गौण नहीं कर सकता। श्रावक तो खैर एक सीमा तक ही स्थूलतः त्यागी-वैरागी है, किन्तु श्रमण ! वह तो सम्पूर्ण तः त्याग वैराग्य की पगडंडियों को पार करता है। श्रमण-वर्ग के अन्तर्गत आचार्य, उपाध्याय, गणि, सामान्य साधु, साध्वी अथवा यति सभी सम्मिलित हो जाते हैं। आचार्य, उपाध्याय, गणि-ये सब तो वास्तव में पद हैं, पदोन्नतियां हैं। पद प्राप्त होने से
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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