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गूढ़ बातों से अनभिज्ञ होते हैं। चैत्यवासी यति वर्ग ने इस कमजोरी का लाभ उठाया। उन्होंने शास्त्रीय बातों की अपने ढंग से व्याख्याएँ की और भोली-भाली जनता को गुमराह करने की कोशिश की।
खरतरगच्छ का अभ्युदय शास्त्रोक्त आचार-व्यवहार के पालन में आई कमजोरी को दूर करने के लिए ही हुआ था। अतः शास्त्रीय विधानों की सम्यक् व्याख्या एवं पुनः स्थापना खरतरगच्छ द्वारा होनी स्वाभाविक ही थी।
खरतरगच्छाचार्यों ने अशास्त्रीय, अकरणीय और अवांछनीय का खण्डन और विध्वंश करके शास्त्रीय, करणीय एवं वांछनीय तत्त्वों का मण्डन और नव निर्माण किया । खरतरगच्छानुयायियों का जैन मंदिर के सम्बन्ध में जो दृष्टिकोण था, उसका उल्लेख हमें शिलालेखों से प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ जिनालयों के सम्बन्ध में किये गये कतिपय विधान प्रस्तुत हैं, जो कि चित्तौड़ के भगवान महावीर चैत्यालय में शिलालेखित थे
(१) अशास्त्रीय तथा उन्मार्ग में ले जाने वाली समस्त प्रवृत्तियों का त्याग होना चाहिए।
(२) रात्रि में प्रतिमाओं के स्नात्र/प्रक्षालन आदि कृत्य नहीं होने चाहिए। इसी तरह रात्रि में प्रतिष्ठा, दीक्षा, देवतर्पण आदि भी वयं हैं।
(३) चैत्यालयों में नर-नारी द्वारा कृत "लगुडरास" (रास-रासड़ा). भी निषिद्ध है, क्योंकि वह कर्ण-विकारक है, न कि प्रभु-भक्ति के साधन।
(४) चैत्य-मंदिरों में अनुचित नारी-नृत्य/वेश्या-नृत्य नहीं होने चाहिए। कारण, यह वासनोदीपक है।
(५) रात्रि-वेला में जिनालयों में नारी-प्रवेश निषिद्ध है। साथ ही चैत्य के गर्भगृह में नारी न जाए ताकि मूर्ति का अतिशय सुरक्षित रहे।