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के ही रह गये । शास्त्रोक्त यतिधर्म या श्रमणधर्म के आचार-व्यवहार में और चैत्यवासी यतिजनों के आचार-व्यवहार में परस्पर असंगति होने से धार्मिक क्रान्ति अपेक्षित थी । इस ओर सर्वप्रथम कदम उठाया आचार्य जिनेश्वरसूरि ने। इन्होंने चैत्यवासी यतिश्रमणों के विरुद्ध प्रबल आन्दोलन किया। उन्हीं के प्रयासों का यह सुमधुर फल है कि आगमिक आचार-दर्शन के मार्ग का पुनर्प्रचार-प्रसार प्रारम्भ हुआ और महावीर के मोक्ष मार्ग की पुनर्स्थापना हुई । इसके लिए ग्यारहवीं शदी में श्री वर्द्ध मानसूरि के नेतृत्व में अथवा बुद्धिसागरसूरि के सहभागित्व में जिनेश्वरसूरि ने सुविहित मार्ग - प्रचारक एक नया गण स्थापित किया, जो. खरतरगच्छ के नाम से प्रख्यात हुआ । यह गण अविच्छिन्न एवं अक्षुण्ण रूप से गतिशील रहा । धर्म संघ को इसने जो अनुदान किया, उसका अपने-आप में ऐतिहासिक मूल्य है । खरतरगच्छ का वैशिष्ट्य
खरतरगच्छ वह परम्परा है जिसने चैत्यवास और मुनि-जीवन के शिथिलाचार के विरुद्ध क्रान्ति की । इस गच्छ में हुए आचार्यों के द्वारा चैत्यवासका उन्मूलन और सुविहित मार्ग का प्रचार करने के कारण ही आज तक श्रमण-धर्म प्रतिष्ठित रहा । खरतरगच्छ की यह तो प्राथमिक सेवा है, साहित्य - साधना और सामाजिक-सेवा भी खरतरगच्छ की अन्य विशेषताओं में प्रमुख है । इस मत का समाज पर इतना वर्चस्व एवं प्रभुत्व छाया कि हजारों लोगों ने इसमें निर्मन्थदीक्षा ली और लाखों लोगों ने इसका अनुगमन किया । समाज में सर्वाधिक प्रसिद्ध ओसवाल - जाति का विस्तार इसी गच्छ की देन है ।
वस्तुतः उन सभी विशेषताओं के कारण ही खरतरगच्छ का नाम गौरवान्वित हुआ और इसकी परम्परा में हुए श्रमण एवं श्रमणाचार्य जन-जन की श्रद्धा के केन्द्र बने ।
खरतरगच्छ स्वयं में अनेक विशेषताओं को समेटे है । यहाँ हम निम्नलिखित विशेषताओं की चर्चा कर रहे हैं
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