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धर्म रहा है । वह तत्त्व- निष्ठा और आचार-निष्ठा को समान महत्त्व देता है । इसीलिए वह ज्ञात सत्य का आचरण और आचरित सत्य का ज्ञान अपरिहार्य मानता है । चाहे श्रमण हो या श्रावक अथवा समस्त संघ का प्रतिनिधित्व करने वाला आचार्य हो, सबके लिए तात्त्विक एवं भाचारमूलक आदर्श अनुकरणीय है । धर्म के निर्देश तो सबके लिए एक-से एवं चिरस्थायी होते हैं। इसलिए धर्म कभी भी उस छूट के मार्ग की अनुमोदना नहीं करता, जो जीवन-मूल्यों को पतनोन्मुख बनाता हो । पर मनुष्य सुविधावादी है । वह अपनी सुविधाओं के अनुसार धर्म-निर्दिष्ट आचार - परम्परा में आमूल-चूल परिवर्तन तो नहीं कर पाता, किन्तु उसमें उच्चता या शिथिलता तो स्वीकार कर सकता है ।
भगवान् महावीर का तत्कालीन श्रमण संघ तो समग्ररूपेण आचार एवं विचारनिष्ठ था । उनके समसामयिक एवं परवर्तीकाल में हुए श्रमणों तथा श्रमणाचार्यों ने अपने योगबल, ज्ञानबल और चारित्रबल के द्वारा न केवल आत्मोत्थान किया, अपितु सदाचार और सद्विचार की गंगा-यमुना को ग्रामानुग्राम पहुँचाने के लिए व्यापक प्रयास भी किया ।
इसे काल का दुष्प्रभाव समझें या भाग्य की विडम्बना कि तत्परवर्तीकाल में आचार - निष्ठता धूमिल होने लगी और शिथिलता की महामारी से अनेक श्रमण ग्रसित हो गये । यद्यपि श्रमणोचित धर्म का परिपालन न करने के कारण वे भ्रमण कहलाने के अधिकारी ही नहीं थे, तथापि वे स्वयं को श्रमण कहते और उसी रूप में ही प्रतिष्ठा एवं सम्मान प्राप्त करते । यह वर्ग ही पश्चवर्ती काल में चैत्यवासीयतिवर्ग के रूप में प्रसिद्ध हुआ ।
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चैत्यवासी यतिजनों की बहुलता हो जाने के कारण जिनोपदिष्ट आगमिक आचारर-दर्शन का सम्यकृतया पालन करनेवाले श्रमण गिनती
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