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(१) शिथिलाचार का उन्मूलन । (२) शास्त्रीय विधानों की पुनर्स्थापना । (३) शास्त्रार्थ - कौशल
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(४) यौगिक शक्ति प्रयोग |
(५) नरेशों को प्रतिबोध 1
(६) जैन संघ का विस्तार |
(७) गोत्रों की स्थापना ।
(८) प्रखर साहित्य - साधना |
(c) साम्प्रदायिक सहिष्णुता ।
(१०) अन्य विशेषताएं ।
आगामी पृष्ठों में हम उक्त बिन्दुओं पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे
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(१) शिथिलाचार का उन्मूलन : एक क्रान्तिकारी चरण
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जैसे नदी की धारा में घटोतरी और बढ़ोतरी होती है, वैसे ही जैन धर्म में भी क्षीणता और व्यापकता आई । खरतरगच्छ जिन परिस्थितियों में जनमा, उनकी चर्चा हम आगे करेंगे । यहाँ तो मात्र इतना ही समझें कि वे परिस्थितियाँ धर्म - विकृति की थी । धर्म-परम्परा एवं विधि-विधानों के अमृत में लोगों ने यों जहर घोला कि अमृत का अस्तित्व खतरे में पड़ गया । खरतरगच्छ ने धर्म, संघ एवं परम्परा को इस जहरीले वातावरण से न केवल मुक्त किया, वरन् अमृत-जीवन की पगडंडी पर आरूढ़ किया ।
खरतरगच्छीय परम्परा में हुए आचार्यों / मुनियों की देन जैनेतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। यदि वे शिथिलाचार, चैत्यवास और और अविधिवाद का आमूल विनाश न करते तो वर्तमान जैन - चैत्य और वर्तमान श्रमणाचार का यह रूप दिखाई नहीं देता ।
खरतरगच्छ की परम्परा प्रकट नहीं होती तो आज शायद जैन