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जैन धर्म में परम्परा-भेद
जैन धर्म मुख्यतः दो परम्पराओं में विभक्त है - श्वेताम्बर एवं दिगम्बर । यह भेद एवं नामकरण मुख्यतः वस्त्र - सापेक्ष है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दिगम्बर-मत का अभ्युदय विक्रम संवत् १३६ में हुआ और दिगम्बर- परम्परा के अनुसार श्वेताम्बर - मत का आविर्भाव विक्रम संवत् १३६ में हुआ था । वह अभी तक शत-प्रतिशत निर्धारित नहीं हो पाया है कि दोनों परम्पराओं में पहले श्वेताम्बर - मत स्थापित हुआ या दिगम्बर- मत ।
भेदोपभेद
जैन-धर्म-संघ में यत्किंचित मान्यता भेद को लेकर छोटी-बड़ी कई परम्पराएँ पनपीं । न केवल पनपीं, अपितु काफी फली फूली भी । वे विविध परम्पराएँ गण, कुल, गच्छ, शाखा, समुदाय आदि रूपों में विकसित हुई । इनमें गण सर्वाधिक मुख्य एवं प्राचीन है। तीर्थङ्करों के प्रधान शिष्य गणधर कहलाते थे । वे गण की व्यवस्था का दायित्व: निभाते थे
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एक गण में अनेक कुल और शाखाएँ हुआ करती थीं । भगवान् महावीर के शासन काल में जो-जो गण आदि हुए, उनका लेखा-जोखा काफी विस्तृत है । स्थानांग सूत्र के नौवें अध्याय में एवं कल्पसूत्र के स्थविरावली - खण्ड में उन गणों की चर्चा हुई है ।
कल्पसूत्र में प्राप्त उल्लेख विस्तृत एवं प्रामाणिक हैं । इसमें भगवान् महावीर के नौ गण और ग्यारह गणधरों पर प्रकाश डालते हुए महावीर की परम्परा आर्य सुधर्म से स्वीकार की है। महावीर की परम्परा में हुए आर्य धर्म, जम्बू, प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, वज्र, फल्गुमित्र, देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। कल्पसूत्र में प्रमुख पट्टधरों का वर्णन करते हुए उनसे निःसृत कुल, गण
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