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अकलंकसूरि पांच आचार्य एवं पन्द्रह साधुओं के साथ संघ-दर्शनार्थ आये। जिनपति से अकलंकदेव की “जिनपति” नाम एवं “संघ के साथ साधु-साध्वियों का गमनागमन शास्त्रोक्त है या नहीं" इन प्रश्नों पर शास्त्र-चर्चा हुई, जिसका विस्तृत वर्णन "खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में द्रष्टव्य है । शास्त्र-चर्चा में अकलंकदेव निरुत्तर हो गये। जिनपति ने प्रथम प्रश्नों का उत्तर देते हुए बताया कि जिनपति का तात्पर्य है जिन है पति जिसका, वह है "जिनपति" यह अर्थ बहुव्रीहिसमास के आधार पर किया गया। द्वितीय प्रश्न का उत्तर देते हुए जिनपति ने यह सिद्ध किया कि यदि संघ किसी तीर्थ की यात्रा करने के लिए जाता हो और वह साधु-साध्वियों को तीर्थाटन करने के लिये निवेदन करे तो साधुसाध्वी का संघ के साथ जाना शास्त्र सम्मत है। अकलंकदेव जिनपति को अप्रतिम विद्वता देखकर अत्यधिक प्रभावित हुए।
संघ जब चन्द्रावती से कासहृद पहुँच तो वहाँ भी जिनपतिसरि के साथ आचार्य तिलकप्रभसूरि की शास्त्रीय चर्चा हुई । यह चर्चा मुख्यतः "संघपति" तथा "वाक्यशुद्धि" से संबद्ध थी, जिसमें जिनपतिसूरि ने आगमिक एवं आगमेतर ग्रन्थों के प्रमाणों द्वारा तिलकप्रभसूरि को पराजित किया।
इसी प्रकार संघ जब आशापल्ली पहुंचा, तब वहाँ भी जिनपतिसूरि को शास्त्रार्थ करना पड़ा। यह शास्त्रार्थे जिनपतिसूरि और आचार्य वादिदेव परंपरीय आचार्य प्रद्युम्न के मध्य हुआ था। शास्त्रार्थ का विषय "आयतन' अनायतन” से सम्बन्धित था। शास्त्रार्थ में जिनपति ने विजय प्राप्त की और यह सप्रमाण सिद्ध कर दिया कि जिस जिनमन्दिर में साध निवास करते हैं, उसकी सम्भाल करते हैं, वह अनायतन है। इस शास्त्रार्थ का निम्नकृतियों में सविस्तार वर्णन किया गया है१ आयतन = मन्दिर, चैत्यतुल्य-अमरकोष (२. २.७)
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