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________________ नाथ विधिचैत्य के स्वर्ण दण्ड, कलश और ध्वज की प्रतिष्ठा की। तगला प्राम में महलाल श्रावक जो गुणभद्र गणि के पिता थे, द्वारा निर्मापित अजितनाथ विधिचेत्य की प्रतिष्ठा की। सं० १२२२ में वादली नगर के पार्श्वनाथ मन्दिर में इसी महलाल श्रावक कारित स्वर्ण दण्ड, कलश की प्रतिष्ठा की । अम्बिका-मन्दिर के शिखर पर स्वर्ण-कलश की प्रतिष्ठा कर वे रुद्रपल्ली होते हुए नरपालपुर पधारे । वहाँ एक ज्योतिषो से ज्योतिष सम्बन्धी चर्चा करते हुए उन्होंने उसे कहा कि चर, स्थिर, द्विस्वभाव इन तीन स्वभाव वाले लग्नों में किसी भी लग्न का प्रभाव दिखाओ। ज्योतिषी के निरुत्तर होने पर उन्होंने वृष लग्न के १ से ३० अंशों तक के समय मार्गशीर्ष मुहुर्त में पार्श्वनाथ मन्दिर के समक्ष एक शिला १७६ वर्ष तक स्थिर रहने की प्रतिज्ञा से अमावस्या के दिन स्थापित कर उस ज्योतिषी को पराजित कर दिया। खरतरगच्छ वृहद गुर्वावली के अनुसार वह .. शिला अभी भी (सं० १३०५) वहाँ विद्यमान है। .... सं० १२२२ में रुद्रपल्ली नगर में आचार्य पद्मचन्द्र के साथ जिनचन्द्रसूरि का 'न्यायकन्दली' पठन के प्रसंग को लेकर 'अन्धकार रूपी है या अरूपी' विषय पर चर्चा हुई। इस चर्चा ने शास्त्रार्थ का रूप ग्रहण कर लिया। अन्त में रुद्रपल्ली की राज्यसभा में दोनों में शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें जिनचन्द्रसूरि विजित हुए एवं उन्हें विजयपत्र सम्प्राप्त हुआ। 'खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली' में जिनचन्द्रसूरि के सम्बन्ध में एक आश्चर्यकर एक घटना का उल्लेख किया गया है। जब जिनचन्द्रसूरि संघ के साथ वोर सिंदानक ( वोरसिदान पामोल्लेख भी प्राप्त होता है) ग्राम के निकट अपना विश्राम-पड़ाव डाला। उसी समय वहां म्लेच्छों के आगमन की सूचना प्राप्त हुई। म्लेच्छ लोग संघ को न लूटे, इस उद्देश्य से जिनचन्द्र ने संघ के आगे अपने दण्ड से एक गोलाकार रेखांकन कर उसके भीतर संघ समाविष्ट कर दिया । आश्चर्य यह था २०६
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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