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नामक श्रेष्टि की धर्मपत्नी देणदेवी की कुक्षि से सं० १९६७ भाद्रव शुक्ला ८ के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में जिनचन्द्रसूरि का जन्म हुआ । '
आचार्य जिनदत्तसूरि ने विक्रमपुर में चातुर्मास किया । इसी अवधि में उन्होंने रासलपुत्र को अपने पट्ट के योग्य ज्ञात किया । 'खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावली' के अनुसार तो रासलपुत्र जब गर्भ में था, उसी समय जिनदत्त को यह ज्ञात हो गया था कि यह मेरा पट्टधर है ।
जिनचन्द्रसूरि की दीक्षा स० १२०३, फाल्गुन शुक्ला ६ के दिन पार्श्वनाथ विधिचैत्य में जिनदत्तसूरि के कर कमलों से हुई ।
सं० १२०५ बैशाख शुक्ल ६ को विक्रमपुर के महावीर जिनालय में जिनदत्तसूरि ने स्वहस्त से इन्हें आचार्य पद प्रदान कर जिनचन्द्रसूरि नामकरण किया । आचार्य पद महोत्सव इनके पिता साह रासल ने बड़े समारोह पूर्वक किया । उपाध्याय क्षमाकल्याण कृत खरतरगच्छ पट्टावली में सं० १२०५ के स्थल पर सं० १२११ लिखा है, लेकिन उपाध्याय अभयतिलक कृत द्वयाश्रकाव्य वृत्ति की प्रशस्ति में, उपाध्याय चन्द्र तिलक रचित अभयकुमार चरित्र में, युगप्रधानाचार्य गुर्वावली में एवं अन्य पट्टावलियों में भी आचार्य पद का समय सं० १२०५ ही उल्लेखित है । यद्यपि व्यवहार सूत्र आदि आगमों में दीक्षाग्रहण के मात्र २ वर्ष पश्चात् ६ वर्ष की अल्पायु में आचार्य जैसा महत्वपूर्ण पद प्रदान करने की आज्ञा नहीं है । लगता है इनके भाव कतृत्व को प्रमुखता देकर ही इन्हें आचार्य पद दिया होगा । पूर्णभद्र कृत शालिभद्रचरित्रानुसार आचार्य जिनदत्तसूरि ने इन्हें आगम, मंत्र, तन्त्र, ज्योतिष आदि का अध्ययन करा कर सभी विषयों में विद्वान बना दिया ।
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१ संवत् सिव सत्ताणवयं, सद्दट्ठभि सुदि णम् ।
रास तात सुमातु जसु,
देल्हण देवि सुधम्म ।
-- पुण्यसागरकृत श्री जिनचन्द्रसूरि अष्टक (२)
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