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विख्यात हैं । इन चार दादा गुरु देवों में विवेच्य आचार्य का द्वितीय क्रम है । ये बड़े दादा जिनदत्तसूरि के पट्टधर थे । '
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बताया जाता है कि इनके भालस्थल में एक अद्भुत मणि थी, अतः इनकी प्रसिद्धि "मणिधारी" के रूप में हुई है । यद्यपि मात्र २६ वर्ष की आयु में इनका निधन हो गया था, किन्तु इस अल्प समय में भी इनकी असाधारण प्रतिभा ने समाज पर अमिट प्रभाव डाला । भारत में अनेक स्थलों पर इनकी चरण पादुकाएँ स्तूप एवं मन्दिर आदि निर्मित-प्रतिष्ठापित हैं । अनेक कवियों ने इन पर स्तुतिपरक रचनाएँ लिखी हैं। खरतरगच्छ वृहद् गुवविली में इनका विस्तृत जीवन-वृत्त वर्णित है तथा अगरचन्द नाहटा एवं भंवरलाल नाहटा ने 'मणिधारी भी जिनचन्द्र' नामक शोधमूलक पुस्तक लिखी है । उपाध्याय लब्धि मुनि ने इन पर एक काव्यरचना की थी, जो संस्कृतकाव्य - साहित्य में अपना स्थान रखती है ।
जीवन-वृत्ति - जैसलमेर के निकटवर्ती विक्रमपुर में साह रासल
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जैनसमाजविख्याता दादेति नामधारकाः । श्री जिनदत्तसूरीशाः श्री जिनचन्द्रसूरयः । जिनकुशलसूरीशाः श्री जिनचन्द्रसूरयः । श्री खरतरगच्छस्य चतुष्वतेषु सूरिषु ॥
- श्री जिनचन्द्रसूरिचरितम् ( २ - ३ )
(क) श्री जिनचन्द्रसूरीशाः ललाटमणिधारकाः । शासनोद्यतका आसन महाप्रभावशालिनः ।।
(ख) जिणदत्तसूरि पट्टे जिणचंदसूरि मणियालो जाओ । तस्य भालयले नरमणी दीपइ ||
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-वही (१८६)
- वृद्धाचर्यं प्रबन्धावली (६)