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________________ उन्होंने जिनवल्लभ को पत्र लिखा कि तुम शीघ्र अपने समुदाय सहित चित्रकूट पहुँचो, मैं भी विहारकर वहां पहुंच रहा हूँ। जिनवल्लभ ने आदेश का अनुगमन किया। देवभद्रसूरि ने जिनवल्लभ को विधिवत् आचार्य पद प्रदान कर अभयदेवसूरि के पट्ट पर स्थापित किया। उसी समय से गणि जिनवल्लम आचार्य जिनवल्लमसूरिके नाम से कीर्तिमान हुए। जिनवल्लभ के आचार्य पदारूढ़ होने का समय वि० सं० ११६७, आषाढ़ शुक्ल ६ और स्थान वीरप्रभू चैत्यालय, चित्तौड़ है। वि० सं० ११६७, कार्तिक कृष्ण १२ की रात्रि के चतुर्थ प्रहर में जिनवल्लभसूरि का शुक्लध्यान में स्वर्गगमन हुआ। पट्टावलियों में लिखा है कि उन्होंने चतुर्थ देवलोक प्राप्त किया। शिथिलाचार-उन्मूलन :-खरतरगच्छ की तेजस्विता इसी में है कि इसने आचारपरक शिथिलताओं को कभी प्रोत्साहन नहीं दिया। चैत्यवासियों की शिथिलाचारमूलक वृत्तियों का खरतरगच्छ ने खुलकर विरोध किया। जिनवल्लभसूरि ने भी चैत्यवास और शिथिलाचार के उन्मूलन में अथक प्रयास किया था । यद्यपि आचार्य जिनेश्वरसूरि और अभयदेवसूरि आदि ने शिथिलाचार के पेड़ को काट फेंकने का स्तुत्य प्रयत्न किया था, किन्तु वे उसे जड़ से न उखाड़ पाए । कारण बारहवीं सदी में भी शिथिलाचार का प्रभुत्व स्पष्ट दिखाई देता है। विक्रम संवत् ११४७ में नाडोल के चौहान नृपति जोजलदेव ने अपनी आज्ञा घोषित करवायी और उसे अनेक स्थानों में उत्कीर्ण भी करवाया था कि एक मन्दिर से सम्बद्ध वेश्याओं को अपने वर्ग सहित दूसरे मन्दिर की यात्रा में भी भाग लेना पड़ेगा। किसी आचार्य मुनि ने इसका विरोध किया तो उसे दण्ड दिया जाएगा। जिनवल्लभसूरि ने राजाज्ञा होते हुए भी इन सबका विरोध किया और उसे आमूल नष्ट करने में आशातीत सफलता प्राप्त की।
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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