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ने बनवाया था, जिसका उल्लेख तत्कालीन देवालय के निर्मापक श्रेष्ठी धनदेव के ही पुत्र कवि पद्मानन्द ने किया है।
जिनवल्लभ वहाँ से नरवरपुर पधारे, जहां उन्होंने नवनिर्मित मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई | नागपुर और नरवरपुर दोनों ही स्थानों के मन्दिरों पर रात्रि में भगवान के नैवेद्य आदि चढ़ाना, रात्रि में रास,. नृत्य आदि के निषेध के लिए शिलालेखों के रूप में विधि अंकित करवा दी, जिसे शिलालेख में "मुक्ति साधक विधि” नाम दिया।
मरुकोट की घटना है कि एक बार जिनवल्लभ ने मार्ग पर जा रहे एक अश्वारूढ़ वर को देखा, जिसके साथ में कौटुम्बिकजनों का विशाल समुदाय था। स्त्रियाँ वैवाहिक मंगल गीत गा रही थीं। यह देखकर जिनवल्लभ ने उपस्थित श्रावकों से कहा कि देखो। संसार की स्थिति कैसी विचित्र है ? ये स्त्रियां जो इस समय उत्साहपूर्वक मंगल गान गा रही हैं, रोती हुई लौटेंगी। वर वधुगृह पहुँचा और घोड़े से नीचे उतरकर मकान में जाने के लिये सीढ़ी पर चढ़ने लगा। अकस्मात् उसका पैर फिसल गया और वह गिरकर घरट की कील के ऊपर पड़ा। तीक्ष्ण आघात ने वर के प्राण का हरण कर लिया। स्त्रियाँ रोती-बिलखती लौट पड़ी, जिसे देखकर श्रावकों ने सोचा कि जिनवल्लभ भी त्रिकालज्ञ हैं।
गणिजिनवल्लभ' मरुकोट से नागपुर प्रत्यावर्तित हुए। उनकी प्रसिद्धि और प्रतिभा को देखकर आचार्य देवभद्रसूरि को अपने गुरु प्रसन्नचन्द्रसूरि का अन्तिम वाक्य स्मरण हो आया कि अभयदेवसरि का पट्टधर गणिजिनवल्लभ को बनाना। यह विचार व्युत्पन्न होने पर १ सिक्तः जिनवल्लभस्य सुगुरोः शान्तोपदेशामृतेः ।
श्रीमन्नागपुरे चकार सदन भी नेमिनाथस्य यः ।। श्रेष्ठी श्री धनदेव इत्यभिधया ख्यातश्च तस्याङ्गजः । पद्मानन्द शतं व्यधत्त सुधिया मानन्द सम्पत्तये ॥
-वैराग्य शतक
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