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एक अनुरोध पत्र प्रेषित किया जिसमें यह सूचित था कि " कण्ठे कुठारः कमठे ठकारः” इस समस्या की पूर्ति जिनवल्लभगणि से शीघ्र करवाकर भेजें । जिनवल्लभ ने इस प्रकार उसकी समस्या पूर्ति की -
रे रे नृपाः श्री नरवर्म भूप प्रसादनाय क्रियतां नताङ्गः । कण्ठे कुठारः कमठे ठकार श्चक्रे यदश्वोग्रखुराग्रघातैः ॥
इस समस्या पूर्ति ने न केवल परदेशी विद्वानों को प्रसन्न किया अपितु स्वयं नरवर्म भी आह्लादित हुआ और वह जिनवल्लभ का भक्त हो गया । उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर उक्त घटना वि० सं० ११६३ के लगभग हुई थी ।
तदनन्तर जब जिनवल्लभ धारानगर गये तब राजा ने उन्हें तीन लाख 'पारुत्थक' मुद्रा/तीन गाँव लेने के लिये अत्यधिक आग्रह किया । जिनवल्लभ ने उसे स्वीकार नहीं किया । कारण वे अपरिग्रही और निस्पृह मुनि थे । अन्त में राजा ने जिनवल्लभ को चित्तौड़ में निर्मापित दो विधि चैत्यों की पूजा के लिये यह धन / ग्राम दान में दे दिया | युगप्रधानाचार्य गुर्वावली के अनुसार राजा द्वारा पुनः पुनः धन ग्रहण का आग्रह किये जाने पर जिनवल्लभ ने कहा कि यदि आपका यही आग्रह है तो चित्तौड़ में श्रावक संघ द्वारा निर्मापित मन्दिरद्वय में पूजा - 1 - निमित्त इस वृहत् राशि में से दो रुपये प्रतिदिन प्रदान करते रहें । राजा जिनवल्लभ की त्याग - वृत्ति से प्रभावित हुआ और उनके निर्देशानुसार नियम व्यवहृत कर दिया ।
चित्रकूट से जिनवल्लभ नागौर- संघ की विनती स्वीकार कर नागपुर (नागौर) गये । वहाँ उन्होंने भगवान नेमिनाथ के मन्दिर और मूर्ति की सविधि प्रतिष्ठा करवाई । यह मन्दिर श्रेष्ठी धनदेव
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