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उन्होंने स्वयं भी किया है कि सुविहित शिरोमणि और श्रेष्ठ गीतार्थ अभयदेवसूरि से लोकों में अयं कूर्यपुरगच्छीय जिनेश्वरसूरि का शिष्य गणि पद धारक जिनवल्लम ने उपसम्पदा और सिद्धान्त ज्ञान प्राप्त किया।
जिनवल्लम के ही पट्टधर आचार्य जिनदत्तसूरि ने भी इस तथ्य की पुष्टि की है।
जिनवल्लभ अभयदेवसूरि की आज्ञा से विविध अंचलों में भूमण करने लगे। उधर एक दिन अभयदेवसूरि ने आचार्य प्रसन्नचन्द्रसूरि को एकान्त में बुलाकर कहा-मेरे पाट पर शुभ लग्न देखकर जिनवल्लभगणि को स्थापित कर देना। किन्तु देवयोग से इस प्रस्ताव को क्रियान्वित करने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ और प्रसन्नचन्द्र कालधर्म को प्राप्त हो गए। मृत्यु से पूर्व उन्होंने आचार्य देवभद्रसूरि को अभयदेवसूरि के प्रस्ताव से अवगत करा दिया। जिनवल्लभ अभयदेवसूरि के स्वर्गवास के पश्चात् गुर्जर प्रदेश गये किन्तु गुर्जर प्रदेश में सुविहित सिद्धान्त-प्रचार में उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली। गुजरात चैत्यवासियों का गढ़ केन्द्र था। अतः वहाँ चैत्यवासी उनके विरुद्ध थे और वसतिवासियों ने उनका समुचित सम्मान इसलिये नहीं किया क्योंकि वे चैत्यवास से संसर्गित थे। अन्ततः जिनवल्लम ने अन्य साधुओं को साथ लेकर मेदपाट (मेवाड़) की ओर विहार किया। वह क्षेत्र मी चैत्यवासियों से प्रभावित था किन्तु जिनवल्लभ को वहां अपनी प्रतिमा की छाप जमाते अधिक समय नहीं लगा। यद्यपि जिनवल्लम को अनेक विरोधों का सामना करना पड़ा किन्तु वे विरोध उनके लिये अनर्थकारक नहीं अपितु अनागत में लाभदायक सिद्ध हुए।
१ अष्ट सप्ततिका, १ २ द्रष्टव्य विशिका, १-२