SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनेश्वराचार्य स्वयं चकित रह गए। अन्त में जिनेश्वर ने पूछाजिनवल्लभ ! यह क्या बात है कि तुम सीधे-आशिका के अपने चैत्यवास में न आकर मुझे यहां बुलाया ? वह समय जिनवल्लभ के संकल्प, संयम और धैर्य की परीक्षा का था। उन्होंने अत्यधिक धैर्यता के साथ सविनय कहा-भगवन् , सद्गुरु के श्रीमुख से जिनवचनामृत का पान करके भी अब इस चैत्यवास का सेवन कैसे करूँ, जो कि मेरे लिये विषवृक्षवत् है। जिनवल्लभ का यह वचन जिनेश्वर की आशाओं पर तुषारपात करने वाला था। वे बोले-जिनवल्लभ ! मैंने सोचा था कि मैं तुम्हें अपना सारा उत्तराधिकार देकर स्वयं सद्गुरु के पास जाकर वसतिवास को स्वीकार करूंगा। जिनवल्लभ बोले-यह तो बहुत सुन्दर बात है । चलें, अपने दोनों ही चलकर सद्गुरु के पास सन्मार्गारूढ़ होवें। किन्तु जिनेश्वर बोले-वत्स ! मुझमें इतनी निःस्पृहता कहां कि गच्छ, कुल, चैत्य आदि को ऐसे ही छोड़ दूं। हाँ! जब तुम्हारी अभी वसतिवास स्वीकार करने की प्रबल इच्छा जागृत हो गई है तो तुम भले ही उसे स्वीकार कर लो। इस प्रकार गुरु से सम्मति प्राप्तकर वे वापस पत्तन में गए । आचार्य अभयदेव अत्यन्त प्रसन्न हुए और अपने आपको कहा कि मैंने इसके सम्बन्ध में जैसा सोचा था, वैसा ही सिद्ध हुआ। उन्होंने सोचा कि यद्यपि जिनवल्लभ मेरा पट्टधर होने की पूर्ण क्षमता रखता है परन्तु समाज कभी भी इसे स्वीकार नहीं करेगा कि मेरा पट्टधर कोई चैत्यवासी आचार्य का शिष्य बने। अतः उन्होंने वर्धमान को आचार्यपद देकर जिनवल्लभगणि को उपसम्पदा प्रदान की और सर्वत्र विचरण करने की आज्ञा दी। जिनवल्लम ने अमयदेवसूरि से उपसम्पदा ग्रहण की इसका उल्लेख युगप्रधानाचार्य गुर्वांवली १५०
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy