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है। उसमें लिखा था, साधु को ४२ दोषों से रहित होकर गृहस्थ-गृहों से मधुकरी वृत्ति से थोड़ा-थोड़ा आहार लाना चाहिए । इस वृत्ति से साधु की शरीर धारणा हो जाती है और किसी को कष्ट भी नहीं होता। साधुओं को एक ही स्थान पर निवास नहीं करना चाहिए और न सचित्त फल-फूलादि का स्पर्श करना चाहिए। यह बात जिनवल्लभ के मर्म को स्पर्श कर गई और वह उद्विग्न हो उठा। उसने सोचा, अहो ! जिससे मुक्ति प्राप्त होती है वह तो व्रत और आचार कोई दूसरा ही है, हमारा तो यह आचार बिल्कुल आगम विरुद्ध है। हम तो स्पष्ट ही दुर्गति के गर्त में पड़े हुए हैं और हम पूर्णतया निराधार हैं।
जिनवल्लम ने ग्रन्थ पुनः सन्दूक में रख दिया। जब आचार्य जिनेश्वर वापिस लौट आये तो यह जानकर वे प्रसन्न हुए कि जिनवल्लभ ने उनकी अनुपस्थिति में सम्पूर्ण प्रबन्ध कुशलतापूर्वक किया। जिनेश्वर ने सोचा कि मैंने जिनवल्लभ को सभी विषयों में पारंगत कर दिया है। किन्तु यह अभी तक जैन सिद्धान्तों से अनभिज्ञ है। इस सिद्धान्त के ज्ञाता तो आचार्य अभयदेवसूरि हैं। अतः इसे उन्हीं के पास भेजा जाए और तदनंतर इसे अपनी गद्दी पर आसीन कर दिया जाए। यह निश्चय करने जिनवल्लभ को वाचनास्वामी पद से विभूषित कर जिनेश्वर नामक एक अन्य साधु के साथ अणहिलपुर पत्तन भेज दिया। अणहिलपुर जाते समय जिनवल्लम ने मार्गवर्ती मरुकोट नगर में माणू श्रावक द्वारा निर्मापित चैत्यालय की प्रतिष्ठा की। __वहां से चलकर वह अणहिलपुर पाटण में आचार्य अभयदेवसूरि के पास पहुँचा । अभयदेव सामुदायिक चूडामणि ज्ञान के धनी थे। अतः उन्होंने जिनवल्लभ को देखते ही पहचान लिया कि यह कोई भव्य जीव है। अभयदेव ने पूछा-तुम्हारा यहां किस प्रयोजन से आना हुआ है ?
जिनवल्लम ने कहा, हमारे गुरुदेव आचार्य श्री जिनेश्वर ने