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________________ उपाध्याय जिनपाल के उल्लेखानुसार उस समय आसिका नगरी में कूर्चपुर गच्छीय चैत्यवासी जिनेश्वर नामधेयक एक आचार्य मठाधीश रहते थे। उनके पास अनेक छात्र विद्याध्ययन करने आते थे। बालक वल्लभ भी उन्हीं में से एक था। स्वयं आचार्य ने देखा कि बालक वल्लभ अपने अन्य सहपाठियों से अधिक कुशाग्र है। एक दिन एक अद्भुत घटना भी घटी। जिनवल्लभ को चैत्यालय के बाहर एक पत्र पड़ा मिला, जिसमें 'सर्पाकर्षिणी' और 'सर्पमोचिनी' नामक दो विद्याएँ उल्लिखित थीं। वल्लभ ने पत्र का उपयोग किया। उसमें निर्दिष्ट विधि के अनुसार जिनवल्लभ ने सर्वप्रथम पहली विद्या का मंत्रोच्चारण किया, जिसके प्रभाव से 'चारों ओर से सर्प ही सर्प आने लगे। वल्लभ ने समझ लिया कि यह विद्यामन्त्र का प्रभाव है। वह निर्भय होकर दूसरे मन्त्र का उच्चारण करने लगा, जिससे समागत सर्प वापस लौट गये। यह समाचार जब जिनेश्वराचार्य ने सुना तो वे उसके प्रति अधिक आकृष्ट हुए और उन्होंने उसे अधिकृत करने का संकल्प कर लिया। तद्नुसार जिनवल्लभ को दीक्षित कर अपना शिष्य बना लिया। आचार्य जिनेश्वर ने जिनवल्लभ को श्रमपूर्वक अध्ययन कराया और उसे सर्क, नाटक, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, कोष आदि विविध विषयों में पारंगत किया। एक बार आचार्य जिनेश्वर को प्रामान्तर जाने का संयोग उपस्थित हुआ। जाते समय उन्होंने वहां की व्यवस्था एवं संरक्षण का कार्य जिनवल्लभ को सौंपा। अपने गुरु के प्रवास काल में जिनवल्लभ ने वहां प्रन्थों से भरी एक सन्दूक देखी। उत्सुकतावश वह उसे खोलकर एक ग्रन्थ निकाला जिसमें साधु के आचारपथ का वर्णन था। वह उसे पढ़ गया। उससे उसे ज्ञात हुआ कि चैत्यवासियों का जो आचार है वह शास्त्र के सर्वथा विपरीत १४६
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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