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यद्यपि अभयदेवाचार्य ने अपने प्रकाण्ड पाण्डित्य एवं विपुल साहित्य से विद्वत्समाज में सदा के लिए अपना स्थान बना लिया और इस कार्य द्वारा श्री वर्धमान और श्री जिनेश्वर द्वारा प्रचारित सुविहित सरिता को प्रगति प्रदान करने में उन्होंने एक अत्यन्त ठोस कार्य किया । सुविहित क्रान्ति की जो प्रचण्ड ज्वाला श्री जिनेश्वर ने एकाएक उत्पन्न कर दी थी, वह कुछ दिनों के लिए मन्द पड़ गई और जनता के लिए चित्त से बह लगभग उतर सी गई। उसी क्रान्ति की सुषुप्त और विस्मृतप्रायः चिनगारियों को लेकर जैन समाज के जन-जन के मन में पुनः आग लगाने और सुविहित विचार-धारा के लिए अदम्य उत्साह एवं लगन उत्पन्न करने तथा चैत्यवास के विरुद्ध एक व्यापक और विकराल आन्दोलन को पुनः जागरित करने का श्रेय श्री जिनवल्लभसूरि को है । '
जिनवल्लभसूरि का कृतित्व इसी तरह बहुव्यापी एवं महत्वपूर्ण है । आचार्य जिनदत्तसूरि ने इनकी तुलना महाकवि कालिदास, माघ और वाक्पतिराज जैसे उच्चकोटि के कवियों के साथ की है । यथा
सुकविमाद्यं ते प्रशंसन्ति ये तस्य शुभगुराः, साधु न जानते ज्ञा मतिजितसुरगुरोः । कालिदासः कविरासीदु यो लोकेर्वण्यं ते, तावद् यावजिनवल्लभ कविर्नाकर्ण्यते । सुकवि विशेषितवचनो यो वाक्यपतिराजकविः । सो पिजिनवल्लभपुरतो न प्राप्नोति कीर्ति कांचित् । १ जीवन-वृत्त :- जिनवल्लभसूरि के व्यक्तित्व एवं जीवन-वृत्त पर परवर्ती विद्वानों ने पर्याप्त प्रकाश डाला है । प्रभावक चरितकार एवं
१ वल्लभ भारती, अध्याय-१, पृष्ठ ३५-३६
२ चर्चरी टीका, पृष्ठ ५..
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