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दिखाई देती है । उन्होंने वृत्ति में निक्षेप-पद्धति का भी व्यवहार किया है । वृत्ति में नियुक्तियों और भाष्यों की शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । दृष्टान्तों के रूप में संक्षिप्त कथानकों का भी इसमें उपयोग हुआ है ।
इस वृत्ति की रचना में अभयदेवसूरि को संविग्नपाक्षिक अजितसिंहसूरि के शिष्य गणि यशोदेव की सहायता प्राप्त हुई थी । वृत्तिकार को आचार्य द्रोण का सहयोग भी इस वृत्ति के संशोधन में प्राप्त हुआ था । इसकी रचना विक्रम संवत् १९१२० में हुई थी । इसका प्रन्थमान १४२५० श्लोक - प्रमाण है । ४
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२. समवायांगवृत्ति :- प्रस्तुत वृत्ति अंगागमों में चतुर्थ अंग समवायांग के मूल सूत्रों पर है। यह वृत्ति न तो अधिक विस्तृत है और न ही अधिक संक्षिप्त । वृत्ति में अनेक स्थलों पर प्रज्ञापना
२ तथा सम्भाव्य सिद्धान्ताद्, बोध्यं मध्यस्थया धिया । द्रोणाचार्यादिभिः प्राज्ञ
यतः ।।
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४
संविग्नमुनिवर्गश्रीमजितसिंहाचार्यान्तेवासियशोदेवगणिनामधेयसाघोरुत्तरसाधकस्येव विद्याक्रियाप्रधानस्य साहाय्येन समर्थितम् ।
- स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति, पृष्ठ ४६६
५
रा
- स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति, (६) पृष्ठ ५००
श्री विक्रमादित्य नरेन्द्रकालाच्छतेन विंशत्यधिकेन युक्ते । समास सहस्रेऽतिगते विरब्धा स्थानाङ्गटीका ऽल्पधियोऽपि गम्या ॥
- स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति (७), पृष्ठ ५००
प्रत्यक्षरं निरूप्यास्या ग्रन्थमानं विनिश्चितम् । अनुष्टुभां
सपादानि
सहस्राणि
चतुर्द्दश ॥
-- स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति, पृष्ठ ५००
(क) रायबहादुर धनपतसिंह, बनारस, सन् १८८० (ख) आगमोदय समिति, सूरत, सन् १६१६
(ग) मफतलाल झवेरचन्द, अहमदाबाद, सन् १९३८
(घ) गुजराती सानुवाद, जैनधर्म प्रचारक सभा, भावनगर, वि० सं०
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