________________
तो. व्याख्या-प्रन्थ लिखे ही, अपनी आगमेतर मौलिक कृतियां भी साहित्य-संसार को प्रदान की। आचार्य अभयदेव के साहित्य को समाज में आप्तवचन के रूप में स्वीकार किया जाता है। ___ साहित्य-जगत् को अभयदेव का सबसे बड़ा अनुदान टीका-रचना का है। प्राचीन जैन टीका-साहित्य में अभयदेव कृत टीका-प्रन्थों का अति महत्त्वपूर्ण स्थान है। यों तो सैकड़ों विद्वानों ने आगमों पर टीका-प्रन्थ लिखे हैं, जिनमें आचार्य हरिभद्रसूरि, शीलांकसूरि, वादिवेताल शान्तिसूरि, अभयदेवसूरि, मलयगिरि, मलधारी हेमचन्द्र आदि प्रसिद्ध नाम हैं। इनमें अभयदेवसूरि की टीकाओं की विशेष मान्यता है। अभयदेवसूरि नवांगीटीकाकार के रूप में विख्यात् हैं। इन्होंने निम्नलिखित आगमों पर टीकाएँ रची हैं-१. स्थानांग, २. समवायांग, ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ४. ज्ञाताधर्मकथा, ५. उपासकदशा, ६. अंतकृद्दशा, ७. अनुत्तरौपपातिक, ८. प्रश्न व्याकरण, ६. विपाक । इन नौ आगमों के अतिरिक्त औपपातिक नामक उपांग पर भी टीका लिखी है।
अभयदेव ने टीकान्तर्गत मूलप्रन्थ के प्रत्येक शब्द की विवेचना एवं आलोचना की। उन्होंने विशेष रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की ओर अधिक ध्यान दिया। ये टीकाएँ शब्दार्थप्रधान होते हुए भी वस्तु विवेचन की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं। टीका-रचना के अतिरिक्त भी उनका साहित्य है। संक्षेप में, उनके साहित्य का परिचय इस प्रकार है
१. स्थानांगवृत्ति:-प्रस्तुत वृत्ति' स्थानांग के मूल सूत्रों पर है। इसमें मूल सूत्रों का तथा सूत्र सम्बन्धित विषयों का विस्तृत विवेचन एवं विश्लेषण हुआ है। प्रन्थ में अभयदेव की दार्शनिक दृष्टि सर्वत्र
(क) रायबहादुर धनपतसिंह, बनारस, सन् १८८० (ख) आगमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१८-२० (ग) माणेकलाल चुनीलाल, अहमदाबाद, सन् १९३७
१३४