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व्याख्याओं को पढ़ा, सुझाव भी दिये, संशोधन-सम्पादन भी किया। यह वास्तव में दो ज्ञान-मनस्वियों का साहित्यमूलक सद्व्यवहार था।
आचार्य अभयदेव के प्रति द्रोण का यह सारस्वत व्यवहार अन्य चैत्यवासी आचार्यों के लिए प्रक्षुब्ध होने का कारण बना। वे द्रोण के प्रति रुष्ट हुए; किन्तु द्रोण ने कहा कि अभयदेव के प्रति हमारी परम्परा के आचार्यों की रुष्टता धृष्टता नहीं तो और क्या है ? विश्व में आचार्य तो अनेकानेक हैं ; किन्तु अभयदेव की तुलना अन्य किसी आचार्य से नहीं की जा सकती। वे अतुलनीय हैं, सर्वोपरि हैं।'
टीका-लेखन में अभयदेव को जिन विद्वानों का सहयोग मिला था, उनमें द्रोणाचार्य का नाम विशेषतः उल्लेखनीय है। स्वयं अभयदेव ने अपने टीका-प्रन्थों की प्रशस्ति में द्रोणाचार्य का साभार सादर उल्लेख किया है। अभयदेव को टोका-लेखन के कार्य में आचार्य अजितसिंह के अन्तेवासी यशोदेव गणि की भी सहायता मिली थी।'
आचार्याः प्रतिसद्म सन्ति महिमा येषामपि प्राकृतेमातुं नाऽध्यवसीयते सुचरितेस्तेषां पवित्रं जगत् । एकेनाऽपि गुणेन किन्तु जगति प्रज्ञाधनः साम्प्रतं, यो धत्तेऽभयदेवस रि-समतां सोऽस्माकमावेद्यताम् ।
-आचार्य द्रोण २ तथा सम्भाव्य सिद्धान्ताद, बोध्यं मध्यस्थयाधिया। द्रोणाचार्यादिभिः प्राशेरनेकैराहतं यतः ।
-स्थानांगवृत्ति, प्रशस्ति ६, पृष्ठ ५०० संविग्न मुनिवर्ग श्रीमजितसिंहाचार्यान्तेवासि-यशोदेव गणिनामधेयसाधोरुत्तरसाधकस्येव विद्या क्रिया प्रधानस्य साहाय्येन समर्थितम् ।
-स्थानांगवृत्ति, पृष्ठ YEE (२)
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