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प्रमुख द्रोणाचार्य प्रभृतिने उनका आवश्यक संशोधन भी किया । द्रोणाचार्य वास्तव में चैत्यवासी परम्परा के बहुश्रुत आचार्य थे अभयदेव सुविहित मार्गी थे 1 परस्पर विरुद्ध परम्परा के होते हुए भी दोनों का एक-दूसरे से धर्म स्नेह था ।
चैत्यवासी परम्परा के प्रमुखों की पराजय के पश्चात् उनका धर्म संघ से गुरुत्व-सत्तागत एकाधिपत्य समाप्त हो गया । सुविहित साधुओं का समस्त गुजरात में निरापद / निर्विघ्न विचरण होने लग गया। आचार्य अभयदेवसूरि ने शिथिलाचार का विरोध करते हुए भी उनके साथ सौजन्य- पूर्ण व्यवहार बनाए रखने की उदारता दिखायी ।
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चैत्यवासी परम्परा के आचार्य - प्रमुख द्रोण आगमवेत्ता थे । आगम की वाचना लेने के लिए उनके पास विशाल विद्वत्-समुदाय उपस्थित होता था । आचार्य अभयदेवसूरि भी आगमों के चोटी के विद्वान थे । आचार्य द्रोण की आगमिक विवेचन शैली का समीक्षण करने के लिए आचार्य अभयदेव उनके पास गये। दोनों का मधुर मिलन हुआ । यद्यपि द्रौण अपनी परम्परा के चौरासी आचार्यों के प्रतिनिधि / प्रधान आचार्य थे; किन्तु खरतरगच्छ के तपोनिष्ठ प्राज्ञ-पुरुष अभयदेव का सम्मान करना उन्होंने अपना कर्तव्य समझा । स्वयं द्रोण ने उनकी भाव उल्लसित अगवानी की। अभयदेवसूरि ने उनकी विवेचन शैली को ध्यान से सुना । वे स्वयं भी आगमों के विशिष्ट व्याख्याता थे । उन्हें द्रोण की विवेचन शैली में कुछ विशिष्टताएँ भी लगीं तो कुछ कमियाँ भी ।
आचार्य अभयदेव ने अपनी आगमिक व्याख्याओं को द्रोण के सम्मुख प्रस्तुत किया । द्रोण उनका पठन कर आचार्य अभयदेव की विवेचन क्षमता पर चमत्कृत एवं अभिभूत हुए । द्रोण का अभयदेवसूरि के प्रति प्रगाढ़ आदर भाव हो गया । उन्होंने अभयदेवसूरि की आगम
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