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________________ तो उनपर विवेचन करना तो असम्भव जैसा है। यदि अज्ञान या प्रमादवश कहीं उत्सूत्र प्ररूपणा हो गई, तो वह मेरे लिए अनन्त संसार की वृद्धि का कारण बन सकता है। आपके वचनों को टालना भी औचित्यपूर्ण नहीं है । अतः मैं किंकर्त्तव्यविमूढ़ बना हुआ सोच रहा हूँ कि मुझे क्या करना चाहिये और क्या नहीं । देवी ने आगमनिष्ठ अभयदेव की मनः स्थिति को समझते हुए कहा, आचार्यवर ! इस कार्य के लिए आपको सम्पूर्ण रूपेण योग्य समझकर ही मैंने आपसे यह निवेदन किया है । आप सिद्धान्तों के ग्राह्य अर्थो का ग्रहण करने में सर्वथा समर्थ हैं । यदि कहीं आपको कोई शंका हो जाये, तो आप मेरा स्मरण कर लेना । मैं सीमन्धर स्वामी से पूछकर प्रश्नोत्तर दे दूँगी । महामनीषी अभयदेव को शासनदेवी के वचनों से बल, उत्साह और सन्तोष मिला। उन्होंने अत्रमत्त होकर निरंतर आचाम्लतप के साथ टीकाओं की रचना प्रारम्भ कर दी । आगमों के टीकालेखन के प्रति उनकी निष्ठा अप्रतिम थी । मनोयोग पूर्वक लेखन करने के कारण वे नौ अङ्गागमों पर टीका रचने में सफल हुए । टीकारचना का कार्य पूर्ण होने के बाद उनका धवलकपुर में आगमन हुआ । टीका - लेखन कार्य में अभयदेव इतने अधिक तल्लीन हो गये थे कि रात्रि जागरण, जलसेवन, आहारचर्यादि उनके लिए उपेक्षणीय हो गये । आचाम्लतप वैसे भी चालू था । उनका शारीरिक बल शिथिल हो गया । उन्हें कुष्ठ रोग ने घेर लिया। विरोधीपक्ष कहने लगा - अभयदेव ने उत्सूत्र प्ररूपणा की है, इसीलिए उन्हें कुष्ठ रोग हुआ है। शासन देवी ने उन्हें उनके कृत कार्य का दण्ड दिया है । १ श्रुत्वेत्यङ्गीचकारथ कार्यं दुष्करमप्यदः । आचाम्लानि चारब्ध ग्रन्थ सम्पूर्णतावधिः || १२४ - प्रभावक चरित्र, पृष्ठ १६४
SR No.023258
Book TitleKhartar Gachha Ka Aadikalin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherAkhil Bharatiya Shree Jain S Khartar Gachha Mahasangh
Publication Year1990
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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