________________
समय-संकेत :-धनेश्वर को संवतोल्लेख युक्त कृति वि० सं० १०६५ की प्राप्त हुई अतः अनुमानतः इनका समय विक्रम की ग्यारहवीं-बारहवीं शदी है।
अमेय मेधा-सम्पन्न आचार्य अभयदेवसूरि
जैनाचार्यों में अभयदेवसूरि नामक अनेक आचार्य हुए हैं। अमयदेवसूरि नाम के पहले आचार्य विक्रम की बारहवीं शताब्दी में राजगच्छीय प्रद्युम्नसूरि के शिष्य हुए, जिनकी प्रसिद्ध कृति महार्णव-टीका है। इसी नाम के दूसरे आचार्य नवांगी-टीकाकार हैं। ये भी विक्रम की ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में हुए हैं। इसी नाम के तीसरे आचार्य हर्षपुरीगच्छ के जयसिंहसूरि के शिष्य हुए हैं। इनके लिए मल्लधारी उपमा व्यवहृत होती है। इनका समय विक्रम को बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध मान्य है। इस प्रकार तीनों ही अभयदेव ग्यारहवें-बारहवें विक्रमाब्द में हुए हैं।
प्रस्तुत प्रबन्ध में हम उन अभयदेव की चर्चा करेंगे, जो नवांगी टीकाकार के रूप में विख्यात् हैं। आगमिक व्याख्या-ग्रन्थों में अंग-आगम साहित्य के नव अंगों पर लिखित इनकी टीकाएँ सर्वोपरि हैं । वे आगम-साहित्य की अमूल्य थाती हैं। खरतरगच्छ को इस बात का गौरव है कि उसने ऐसी अप्रतिम एवं लब्ध-प्रतिष्ठ प्रतिभा विश्व को प्रदान की। अब तक के समस्त आगम-व्याख्याकारों के लिए आचार्य अभयदेव एक आदर्श रहे, मार्गदर्शक रहे। सचमुच, आचार्य अभयदेवसूरि आगम-जगत के प्रकाश-स्तम्भ हैं।
जैनाचार्यों में जिन आचार्यों को प्रमाणभूत एवं तथ्यवादी माना जाता है, उनमें अभयदेव का नाम प्रमुख है । वास्तव में ऐसे आगमव्याख्याता सारस्वत महापुरुष से खरतरगच्छ की आचार्य-परम्परा