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आचार्य जिनेश्वरसूरि के पट्ट पर आसीन हुए। इन्हें सभी विद्वानों ने महागीतार्थ आचार्य के रूप में स्वीकार किया है। इन्हें अष्टादश नाममाला आदि ग्रन्थ कण्ठस्थ थे। सर्वशास्त्रों में इनकी पारंगतता थी। साहित्य ___ आचार्य जिनचन्द्रसूरि ने सं० ११२५ में संवेगरंगशाला जैसे महान प्रन्थ की रचना की। जिसका श्लोक-परिमाण १८००० है। यह प्रन्थ भव्य जीवों के लिए मोक्ष महल का सोपान है। इन्होंने जावालिपुर| जालौर में श्रावकों की सभा में चीवंदण भावस्तव इत्यादि गाथाओं की व्याख्या करते हुए जो सिद्धान्त-संवाद कहे थे उनका उन्हीं के शिष्य ने लिखकर ३०० श्लोक परिमित दिनचर्या नामक ग्रंथ निबद्ध किया जो श्रावक वर्ग के लिए बहुत उपकारी एवं लाभकारी सिद्ध हुआ।२ किन्तु यह कृति प्राप्त नहीं हो पायी है। इनके अलावा जिनचन्द्रसूरि द्वारा रचित अन्य कृतियां भी प्राप्त होती हैं। यथा-पंचपरमेष्ठी नमस्कार फलकुलक, क्षपकशिक्षा प्रकरण, जीवविभक्ति, आराधना पार्श्व स्तोत्र आदि। उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विशद् ग्रन्थ संवेगरंगशाला है। इसकी भाषा प्राकृत है। प्रन्थ १००५३/१००५० गाथाओं में निबद्ध है। इसका रचनाकाल वि० सं० ११२५ है। यह ग्रन्थ उन्होंने अपने लघु गुरु-भाई आचार्य अभयदेव की प्रार्थना से निबद्ध किया था। इस ग्रन्थ को साहित्य-संसार में अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। ___ ऊपर हमने आचार्य जिनचन्द्र के कृतित्व के बारे में जो जानकारी दी है, वह परवर्ती विद्वानों द्वारा किये गये उल्लेखों के आधार पर है। परवर्ती विद्वानों ने आचार्य जिनचन्द्र की प्रशंसा करते हुए उनकी
१ युगप्रधानाचार्य गुर्वांवली, पृष्ठ ६ २ खरतरगच्छ पट्टावली, पत्र २