________________
संस्कृत में काव्य रचा। लेखक ने प्रन्थ में स्थान-स्थान पर जिनेश्वरसूरि 'निव्वाणलीलावई' कृति की अभ्यर्थना की है।
(६) षट् स्थान प्रकरण, रचना काल एवं रचना-स्थल अज्ञात, श्लोक-प्रमाण १०३, प्रकाशित। इस ग्रन्थ पर अभयदेवसूरि ने १६१८ श्लोक परिमाण भाष्य रचा एवं थारापद्रगच्छीय शान्तिसूरि ने टीका रचना की।
(७) "प्रमालक्ष्म” वृत्ति सह, मूल पद्य ४०५, प्रन्थान-परिमाण चार हजार ।
(८) सर्व तीर्थ-महर्षि कुलक, २६ गाथा । (६) वीर चरित्र। (१०) छन्दोनुशासन, जैसलमेर ज्ञानभंडार में पाण्डुलिपि उपलब्ध ।
उक्त ग्रंथों में 'लीलावती कथा' साहित्य-संसार की एक उपलब्धि मानी जाती है। इसका पद-लालित्य प्राकृत-साहित्य की थाती है। श्लेषादि विविध अलंकारों के उपयोग के कारण जिनेश्वर का कवित्व मुखरित हुआ है। इनके पदलालित्य आदि गुणों की प्रशंसा अनेक प्रन्थों में की गई है। 'कथानक-कोश' में जिनेश्वरसूरि ने स्तरीय कथाशैली में उपदेशपरक चालीस कथाएँ निबद्ध की हैं। 'पंचलिंगी प्रकरण' एक सैद्धान्तिक ग्रन्थ है। इसमें मुख्यतः सम्यक्त्व की चर्चा की गई है। 'प्रमालक्ष्म' इनका सर्वोपरि महत्त्वपूर्ण प्रन्थ है । जैन दार्शनिक प्रन्थों में इसका स्थान स्याद्वादमंजरी से भी ऊँचा है। इसमें प्रमाण
और तर्क पर आधारित वाद प्रक्रिया का गहन ऊहापोह हुआ है। स्वर्गारोहण
आचार्य जिनेश्वर सूरि का स्वर्गारोहण किस समय और किस स्थल पर हुआ था यह निश्चित नहीं कहा जा सकता, किन्तु महो। द्रष्टव्य : जिनरत्नकोश, पृष्ठ १३८
१०३