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बड़े-बड़े विद्वान् , क्रियानिष्ठ और गुणगरिष्ठ आचार्य, उपाध्यायादि समर्थ साधु पुरुष हुए। कृतित्व __जब हम जिनेश्वर के कृतित्व-यश की ओर दृष्टिपात करते हैं. . तो ज्ञात होता है कि साहित्य-संसार को भी उनकी महान देन रही है। उनके द्वारा लिखित साहित्य में से अब तक निम्नलिखित प्रन्थ उपलब्ध हो पाये हैं
(१) अष्टक प्रकरण वृत्ति, रचनाकाल सम्बत् १०८०, रचना स्थल जवालिपुर/जालौर, प्रन्थ परिमाण ३३७४ श्लोक, प्रकाशित । इसे हरिभद्रीया अष्ट प्रकरण वृत्ति भी कहते हैं। वस्तुतः यह आचार्य हरिभद्रसूरि छत अष्टप्रकरण की व्याख्या है।
(२) चैत्यवन्दनक, रचनाकाल संवत् १०६६, रचना स्थल जालौर, पत्र ३३, टीका का पद्य-परिमाण १०० पद्य हैं। थाहरू भंडार में उपलब्ध है।
(३) कथा-कोष प्रकरण स्वोपज्ञ वृत्तिसह, रचना काल संवत् ११०८, रचना स्थल डिण्डियांणा (डीडवाना), प्रन्थ परिमाण ५००० श्लोक । सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित ।
(४) पंचलिंगी प्रकरण, गाथा १०१, आचार्य जिनपतिसूरि ने इस प्रन्थ पर भी वृत्ति लिखी है, जो कि जिनदत्तसूरि ज्ञानभण्डार से प्रकाशित है।
(५) लीलावती कथा, इसे 'निव्वाणलीलावई' नाम भी दिया गया है। रचनास्थल आशापल्ली। प्रन्थ प्राकृत पद्यों में रचित है। इस प्रन्थ को आधार बनाकर आचार्य जिनरत्नसूरि ने ५३५० श्लोक-प्रमाण १ मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रंथ । ..
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