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उल्लेख प्राप्त होते हैं और वह यह कि आचार्य जिनेश्वरसूरि ने जिनचन्द्र अभयदेव, धनेश्वर, हरिभद्र, प्रसन्नचन्द्र, धर्मदेव, सहदेव सुमति आदि अनेक व्यक्तियों को दीक्षा देकर अपने शिष्य बनाये। जिनेश्वरसूरि ने जिनचन्द्र और अभयदेव को योग्य पात्र जानकर सूरिपद से विभूषित किया और वे श्रमण-धर्म की विशिष्ट साधना करते-करते क्रमशः 'युगप्रधान पद पर आसीन हुए। इसके अतिरिक्त उन्होंने धनेश्वर को, जिनका नाम जिनभद्र भी था, तथा हरिभद्र को, सूरि पद, धर्मदेव को उपाध्याय पद और सहदेव को गणि पद दिया। धर्मदेव और सहदेव दोनों भाई थे। उपाध्याय धर्मदेव ने हरिसिंह, सहदेव-इन दोनों भाईयों को और सोमचन्द्र को अपना शिष्य बनाया। गणि सहदेव ने अशोकचन्द्र को अपना शिष्य बनाया जो गुरु का अध्ययनशील व प्रिय शिष्य था। उसे जिनचन्द्र सूरि ने समुचित शिक्षित करके आचार्य पद पर आरूढ़ किया। इन्होंने अपने स्थान पर आचार्य हरिसिंह को स्थापित किया। प्रसन्नचन्द्र और देवभद्रसूरि उपाध्याय सुमति के शिष्य थे।'
इस सम्बन्ध में पुरातत्वाचार्य मुनि जिनविजय के अनुसार जिनेश्वर एक भाग्यशाली पुरुष थे। इनकी यशोरेखा एवं भाग्यरेखा बड़ी उत्कृष्ट थी। इससे इनको ऐसे-ऐसे शिष्य और प्रशिष्य रूप महान सन्ततिरत्न प्राप्त हुए जिनके पाण्डित्य और चारित्र्य ने इनके गौरव को दिगन्त व्यापी और कल्पान्त स्थायी बना दिया। अनेक प्रभावशाली और प्रतिभाशील व्यक्तियों ने उनके पास यति दीक्षा लेकर उनके सुविहित शिष्य कहलाने का गौरव प्राप्त किया। उनकी शिष्य-संतति बहुत बढ़ी और वह अनेक शाखाओं-प्रशाखाओं में फैली। उसमें
१ युगप्रधानाचार्य गुर्वांवली.। -- . --- * मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रंथ, पृष्ठ ४
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