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में अभिवृद्धि हुई। सुखसंपतराज भंडारी की शोध के अनुसार जिनेश्वरसूरि ने भीपति, ढढ्ढा, तिलौरा, मशाली (चील महता) आदि गोत्रों की स्थापना की।' इस आदर्श कार्य का समस्त श्रेय जिनेश्वरसूरि को प्रदान करते हुए सबको गौरव की अनुभूति हुई। इसलिए जिनेश्वर के परवर्ती विद्वानों ने इन्हें "युग प्रधान" की महान् उपमा से उपमित किया है, जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की महनीयता को उजागर करता है। इनके सम्बन्ध में मुनि जिनविजय ने लिखा है कि यों तो प्राचीन काल में जैन सम्प्रदाय में सैकड़ों ही ऐसे समर्थ आचार्य हुए हैं, जिनका संयमी जीवन जिनेश्वरसूरि के समान ही महत्वशाली और प्रभावपूर्ण था, परन्तु जिनेश्वरसूरि के जैसा विशालप्रज्ञ और विशुद्ध संयमवान्, विपुल शिष्य समुदाय शायद बहुत थोड़े आचार्यों को प्राप्त हुआ होगा। शिष्य-परिवार ___ आचार्य जिनेश्वर के व्यक्तित्व का जनसाधारण पर इतना अच्छा प्रभाव पड़ा कि अनेक लोगों ने उनके पास दीक्षा अंगीकार की। प्राप्त साक्ष्यों से अवगत होता है कि उनका शिष्य-परिवार अति समृद्ध था। वह भी इन्हीं की भाँति साधनाशील, वैदुष्यपूर्ण, वादी, साहित्यकार एवं प्रभावशाली हुआ। उन्होंने अपने शिष्यों में से जिनचन्द्र अभयदेव, धनेश्वर, जिनभद्र और हरिभद्र को आचार्य पद से विभूषित किया और धर्मदेव, सुमति, सहदेव और विमल को उपाध्याय पदारूढ़ किया। भला जिस गुरु के शिष्यों में एक साथ चार आचार्य पदधारी और तीन उपाध्याय पदधारी हों उसका शिष्यपरिवार भी विशाल होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। 'युग-प्रधानाचार्य गुर्वावली' में जिनेश्वर के शिष्य-परिवार के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण
१ ओसवाल जाति का इतिहास, उद्धृत ओसवाल वंश, पृष्ठ ३८. २ मणिधारी श्री जिनचंद्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रन्थ, पृष्ठ ४
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