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थे, यह तथ्य उनकी चैत्यवन्दनक नामक कृति से प्रगट होता है । कथाकोष प्रकरण में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार विदित होता है कि वि० सं० ११०८ में वे डिण्डियाणा में गये थे । ( वर्तमान में इसे डीडवाणा कहते "हैं, जो जोधपुर, राजस्थान, जनपद के पर्वतसर तालुकान्तर्गत है ।) यद्यपि उन्होंने अनेक प्रदेशों में विचरण किया होगा, किन्तु उक्त उल्लेखों के अतिरिक्त अन्य कोई प्रामाणिक संकेत प्राप्त न होने से उनके बारे में कोई वर्णन नहीं किया जा सकता ।
आचार्य जिनेश्वरसूरि के बारे में संक्षेप में हम कह सकते हैं कि उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वह व्यक्तित्व क्रान्तिकारिता, ओजस्विता, विद्वता, आचार-निष्ठता श्रद्धाभिभूतता आदि गुणों से समन्वित था। वे खरतरगच्छ के प्रवर्तक रूप में प्रसिद्ध हुए ।
आचार्य जिनेश्वर के अथक प्रयासों के कारण जैन समाज एवं परम्परा में विस्तृत परिमाण में परिवर्तन हुआ और इस तरह एक नूतन युग की शुरूआत हुई। जिनेश्वर ने प्रचलित परम्पराओं का संस्कार किया और उसमें प्रथम सफलता प्राप्त की । गृहस्थ और श्रमण दोनों वर्गों में नई जागृति, नई एकता की भावना विकसित हुई । 'चैत्यवासी यतिजनों ने भी क्रियोद्धार करके आचार- संस्कार किया और जो चैत्यवासी यतिजन परम्परागत गण / कुल के रूप में जिन -मंदिरों / चैत्यों में निवास करते, उनकी व्यवस्था आदि का कार्य श्रावक संघ को प्रदान कर दिया गया। अब वे एकता के सूत्र में आबद्ध होने लगे। जिनेश्वर तो उस ऐक्य माला के सुमेरू थे। आचार- संस्कारित यतिजन विविध अंचलों में पाद- विहार करने लगे और वे लोग आत्मसाधन के साथ-साथ आगम अध्ययन तथा ग्रन्थ लेखन- सम्पादन के कार्य भी क्रियान्वित करने लगे । समाज में अहिंसा, अनासक्ति, अनाग्रह, असंग्रह आदि उदात्त अमृत भावनाओं का उनके द्वारा प्रसार होने लगा। इन सबके प्रयास से ही नये जैन बने और जैनों की संख्या
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