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भयभीत न हों और उनसे यह कह दें कि यदि आप लोग उनके साथ वाद-विवाद करना चाहते हैं तो राजा दुर्लभराज के सामने या जहां भी आप शास्त्रार्थ करने के लिए कहेंगे वहां वे शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार हैं। यह सुनकर चैत्यवासी यतियों ने सोचा कि यहां के सब अधिकारी हमारे वशीभूत है। अतः हमें इनसे कोई भय नहीं है । इसलिए राजा के समक्ष राज्य-सभा में ही शास्त्र-विचार किया जाये, उन्होंने कहा।
प्रभावक चरितकार के अनुसार तो पुरोहित ने राज्यसभा में केवल यही कहा था कि मैंने केवल गुणग्राहकता की दृष्टि से ही इन साधुओं को आश्रय दिया है और इन चैत्यवासियों ने इनका अपमान किया है। इसमें यदि कोई मेरा अपराध हो तो मैं दण्ड ग्रहण करने के लिए तैयार हूँ।२ किन्तु समदर्शी राजा ने कहा
मत्पुरे गुणिनः कस्माद्देशान्तरत आगताः।
वसन्तः केन वार्येत को दोषस्तदृश्यते ॥३ इस पर सूराचार्य ने राजा को कहा, इस नगर स्थापक चपोत्कटवंशीय वनराज ने “वनराज विहार" नाम धेयक भगवान पार्श्वनाथ मंदिर की स्थापना करके यह व्यवस्था दे दी थी कि यहां केवल चैत्यवासी यतिजन ही ठहर सकते हैं। राजा ने कहा, ठीक है, किन्तु मुनियों का आदर भी होना चाहिए। राजा ने चैत्यवासियों से बाहर से समागन्तुक मुनियों को वहाँ रहने देने के लिए आग्रह किया। इसी समय शैवाचार्य ज्ञानदेव वहां आ पहुँचे । राजा ने उनका गुरु के रूप
युगप्रधानाचार्य गुर्वावली । मयाच गुणग्राहत्वात स्थापिता बाश्रये निजे । अत्रादिशत में क्षण दण्डं चात्रयथार्हतम । श्रुत्वेत्याह स्मितं कृत्वाभूपालं समदर्शनः ।।
__ ... --- - - -प्रभावक चरित : ६८.६६