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लोग प्रतिबुद्ध हुए। विक्रम संवत् १०७३ में वर्धमानसूरि ने पीपाड़ नगर के स्वामी गहलोत क्षत्रिय कर्मचन्द्र को श्रावकोचित प्रतिबोध देकर जैन बनाया और उन्हें पीपाड़ा गोत्र प्रदान किया। विक्रम संवत् १०७६ में दिल्ली के सोनिगरा चौहान राजा के पुत्र बोहित्य को सांप ने काट खाया। बोहित्य को मृतक समझकर श्मशान ले जाने लगे, किन्तु वर्धमानसूरि की अमृत स्राविनी दृष्टि पड़ते ही उसे होश आ गया। प्रभाववश राजा एवं उसके पुत्र ने जैनधर्म स्वीकार किया। उन्होंने सचेतता प्राप्त करने के कारण जैनत्व स्वीकार किया, इसलिए वर्धमानसूरि ने 'सचेती' गोत्र स्थापित किया। इसी प्रकार लादामहेश्वरियों को धर्मोपदेश देकर उन्हें जैन श्रावक बनाया। लोढ़ा गोत्र उन्हीं से प्रख्यात् हुआ। स्वर्गारोहण
वर्धमानसूरि का स्वर्गारोहण कब हुआ, उसका संवतोल्लेख नहीं मिलता है। उपाध्याय जिनपाल के अनुसार वर्धमानसूरि ने अर्बुदशिखर तीर्थ पर सिद्धान्तविधि-पूर्वक, संलेखना व्रत ग्रहण कर देवत्व प्राप्त किया। साहित्य
आचार्य वर्धमानसूरि एक समर्थ विद्वान थे। शास्त्रार्थ में उनकी निपुणता थी। साहित्य-लेखन उनकी सारस्वत-प्रवृत्ति थी। उनकी कतिपय कृतियां प्राप्त हुई हैं
१. श्रावकमुखवस्त्रिका-कुलक २. उपदेश-पद-टीका ३. उपदेशमाला वृहद् वृत्ति
४. उपमिति भव-प्रपंच कथा १ खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली, पृष्ठ-५ २ मणिधारी श्री जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी ग्रंथ, परिशिष्ट