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है, वह ऐसे प्रलोभनों में नहीं फँस सकता । इसीलिए आचार्य - पद प्राप्ति के बाद भी वर्द्धमान का मन चैत्यगृह में वास करने के लिए स्थिर नहीं हुआ । अन्त में उन्होंने पण्डित जिनेश्वर आदि के साथ दिल्ली, वादली आदि प्रदेशों की ओर प्रस्थान कर दिया ।
उन प्रदेशों की ओर आचार्य नेमिचन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य उद्योतनसूरि विचरण करते थे । वर्द्धमान ने उनके सान्निध्य में आगम एवं आगमेतर शास्त्रों का समुचित अध्ययन किया और उन्हीं के पास पुन: दीक्षा ग्रहण की। तब से आचार्य उद्योतनसूरि इनके गुरु कहलाए । द्योतने वर्द्धमान की योग्य पात्रता को देखते हुए उन्हें आचार्य-पद प्रदान किया । १ अब आचार्य वर्द्धमानसूरि पर संघ संचालन का महान उत्तरदायित्व आ गया ।
एक बार वर्द्धमानसूरि ने सूरि-मंत्र के अधिष्ठाताओं की जानकारी पाने के लिए अर्बुदगिरि पर अट्ठम-तप / त्रयोपवास किया । तप- समाप्ति पर धरणेन्द्र नामक देव प्रकट हुआ और उसने कहा कि मैं ही सूरिमंत्र का अधिष्ठाता हूँ । देव ने सूरि-मंत्र के दो पदों का पृथक-पृथक प्रतिफल भी बताया। इससे आचार्य - मंत्र स्फुरायमान हो गया, जिससे वर्द्धमानसूरि एक प्रभावशाली आचार्य हो गये ।' महोपाध्याय समयसुन्दर के शब्दों में
यकः
शोधयामास वै सूरिमन्त्रं, गिरीन्द्रार्बुदस्याद्भुतेश्ट ंग भागे ।
१ द्रष्टव्य
क) खरतरगच्छालंकार - युगप्रधानाचार्य गुर्वावली, पत्र १
खरतरगच्छ पट्टावली, पत्र-२
२
क) युगप्रधानाचार्य - गुर्वावली, पत्र १-२
ख) वृद्धाचार्य प्रबन्धावलिः, पत्र १ - ३, ( इस ग्रंथ में यह घटना विस्तार
पूर्वक दी गई है )
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