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आधिपत्य था । सम्यक् शास्त्रीय ज्ञान उपलब्ध हो जाने से उन्होंने विशुद्ध संयम जीवन बिताने के लिए अपनी गुरु-परम्परा का परित्याग कर दिया और चान्द्रकुल बड़गच्छ के संस्थापक आचार्य उद्योतनसूरि की सुविहित परम्परा को स्वीकार कर लिया । अतः यही कहा जाना चाहिये कि वर्धमान आचार्य उद्योतनसूरि के शिष्य थे । आचार्य उद्योतन भगवान् महावीर की पट्ट- परम्परा के अड़तीसवें आचार्य थे । 'वृद्धाचार्य प्रबन्धावली' ग्रन्थ में उद्योतनसूरि को 'अरण्यचारी - गच्छ - नायक " बताया गया है ।
जीवन-वृत्त
वर्द्धमान के गृहस्थ-जीवन सम्बन्धी किंचित भी संकेत प्राप्त नहीं होते हैं । प्राप्त उल्लेखों के अनुसार वर्द्धमान एकदा शास्त्र - पठन कर रहे थे। उसी समय उन्होंने शास्त्र में वर्णित जिनमंदिर विषयक चौरासी आशातनाओं का विवेचन पढ़ा। वर्द्धमान को लगा कि जिन आशातनाओं को श्रावक के लिए भी वर्ज्य बताया है, उन्हें यति-मुनियों द्वारा क्रियान्वित करना वस्तुतः मुनित्व से च्युत होना है । यदि मैं इन आशातनाओं तथा दोषों से स्वयं को तथा दूसरों को भी बचाऊँ तो इससे आत्म-श्रेयस भी होगा ।
वर्द्धमान ने अपने इन विचारों को आचार्य जिनचन्द्र के सामने व्यक्त किया । आचार्य ने सोचा कि वर्द्धमान ने शास्त्रों से करणीय एवं अकरणीय आचार-व्यवहारों को गहराई से समझ लिया है । लगता है कि इसकी अन्तर-दृष्टि खुल गई है और यह हमारे विपरीत कार्य भी कर सकता है । क्यों न इसे कोई विशिष्ट पद भार सौंप दूँ,
जिससे यह मेरा समर्थक बना रहे ।
आचार्य - जिनचन्द्र ने वर्द्धमान को आचार्य - पद पर स्थापित कर दिया । किन्तु जिस व्यक्ति ने आत्म जागृति को उपलब्ध कर लिया वृद्धाचार्य प्रबन्धावलिः, श्री वर्द्धमानसूरिप्रबन्ध:, पत्र १
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