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________________ ३४ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज है। अधिकांश जैन संस्कृत महाकाव्य रुद्रट, वाग्भट तथा हेमचन्द्र के लक्षणों से विशेष रूप से प्रभावित हैं। इन महाकाव्यों में तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का इतिहास सम्मत समसामयिक रोचक वर्णन प्राप्त होता है । निष्कर्ष ___ इस प्रकार साहित्य एवं समाज के सैद्धान्तिक विवेचन द्वारा यह निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत जान पड़ता है कि साहित्य सदैव सामाजिक चेतना के प्रति जागरूक रहते हुए तथा युगीन सामाजिक परिस्थितियों से प्रभावित होते हुए ही समाज में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाता है। सामाजिक चेतना से अछूता साहित्य न तो लोकप्रिय ही हो पाता है और न ही उसे समाज में कोई महत्त्वपूर्ण स्थान मिलता है । भारतीय साहित्य के सर्वेक्षण से यह भली भांति स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन भारतीय साहित्य की जो विभिन्न धाराएं प्रतिस्फुटित हुई तथा विभिन्न राजनैतिक, धार्मिक, दार्शनिक, साहित्यिक मूल्यों में से किसी एक मुल्य को बल देते हुए विभिन्न युगों में जो साहित्य सृजन हुआ वह युगीन परिस्थितियों की मावश्यकता थी। प्राचीन भारतीय साहित्य की जो विभिन्न अवस्थाएं रही हैं उन प्रवस्थाओं का विकास भी एक विशेष प्रकार की समाजशास्त्रीय व्यवस्था के सन्दर्भ में ही हुआ । उदाहरणार्थ धार्मिक साहित्य, साहित्य सृजन का प्रथम चरण था। तदनन्तर विशुद्ध रसपरक साहित्य के लिए प्रयास किये गए। ब्राह्मण संस्कृति में वेदों, उपनिषदों, धर्मशास्त्र एवं पुराण ग्रन्थों के बाद काव्य, महाकाव्य आदि का निर्माण होना, जैन संस्कृति में आगम ग्रन्थों तथा धार्मिक, दार्शनिक ग्रन्थों के बाद विभिन्न पौराणिक काव्यों, महाकाव्यों आदि की रचना होना; इसी प्रकार बौद्ध साहित्य में निकाय, जातक, अवदान आदि धार्मिक साहित्य के बाद ही काव्यमहाकाव्यों का निर्माण होना इस तथ्य के प्रमाण हैं । जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि प्राचीन भारतीय चिन्तन में 'समाज' का प्रतीक ही धर्म रहा है अतः धार्मिक साहित्य का प्रमुख उद्देश्य अपने-अपने वर्गों को सामूहिक रूप से संगठित करना था। प्रायः ऐसा सभी धर्मों ने किया है। एक निश्चित वर्ग अथवा समुदाय के निर्मित हो जाने के बाद ही साहित्य का रस-परक रूप सफल हो सकता था। फलतः हम देखते हैं कि मोटे तौर पर ईस्वी पूर्व की भारतीय साहित्यिक चेतना सामाजिक वर्गों के निर्माण में उत्तरोत्तर प्रयत्नशील थी। इस काल में धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त कुछ भी न लिखा जा सका। इसके बाद ईस्वी को पश्चाद्वर्ती शताब्दियों में काव्यात्मक साहित्य निर्माण की ओर ही अधिक झुकाव रहा था परिणामतः साहित्य की विभिन्न काव्यात्मक विधाएं ईस्वी की पश्चाद्वर्ती शताब्दियों में ही अस्तित्व में प्राई, तथा इनका उत्तरोत्तर विकास भी हुआ। भारतीय परिवेश में निर्माण की यह प्रवृत्ति प्रत्येक युग में रही थी और ऐसा भी दृष्टिपथ में पाता है कि प्रत्येक
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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