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________________ साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य ३३ में संभवतः युद्धों का वातावरण कुछ शान्त हो गया था राजा महाराजाओं में भोग विलासिता शनैः शनैः वृद्धि को प्राप्त हो चुकी थी । यही कारण है कि दण्डी महाकाव्य के प्रतिपाद्य विषयों में प्राकृतिक वर्णनों तथा सलिलक्रीडा, मधुपान, रतोत्सव आदि विलासपूर्ण मानव जीवन की गतिविधियों को भी महाकाव्य में विशेष स्थान देने के पक्षधर हैं । रुद्रट ने इन दोनों प्राचार्यों के महाकाव्य लक्षणों को स्वीकार करते हुये ऋतुवर्णन, शत्रुवर्णन, नागरिक क्षोभ, वन, द्वीप, भुवन, स्कन्धावार, सेना निवेश आदि विषयों का समावेश किया । भोज देव के महाकाव्य लक्षणों में सामन्तवादी भोग-विलासिता के लिए पर्याप्त स्थान है । इन्होंने दण्डी की भांति पान गोष्ठी, सलिल क्रीड़ा, उद्यान वर्णन, रतोत्सव आदि के वर्णन का विधान करते हुए इन्हें श्रृङ्गार रस की पुष्टि में सहायक माना है । २ भोज यह भी स्वीकार करते हैं कि राजकुमार, राजकन्या, स्त्री, सेना प्रादि वर्णनों द्वारा महाकाव्य में रसस्रोत बहता है । सामाजिक दृष्टि से विचार करने पर इन वर्णनों द्वारा तत्कालीन मनोरञ्जन की विविध विधाओं की ओर प्रकाश पड़ता है । ऐतिहासिक efष्ट से मध्यकालीन भारत में सैनिक वर्ग में अत्यधिक भोग-विलासिता का प्राधान्य हो गया था । परवर्ती महाकाव्य लक्षण इसके प्रमाण हैं । हेमचन्द्र तथा वाग्भट के महाकाव्य लक्षण भी अपने पूर्व-वर्ती प्राचार्यों के लक्षणों से प्रभावित हैं । हेमचन्द्र गज, अश्व आदि विविध वाहनों के चित्ररण पर विशेष बल दिया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि महाकाव्य लक्षणों में पुर, देश, नगर आदि के वर्णनों से तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के विशेष समसामयिक आग्रहों का अनुमान लगाया जा सकता है । इसके अतिरिक्त अन्य ऐश्वर्य एवं शृङ्गारपरक चित्रणों द्वारा भी तत्कालीन मानव समाज के विविध व्यवहारों आदि का विस्तृत ज्ञान प्राप्त किया जा सकता अथ नायक - प्रयाणे नागरिक क्षोभजनपदाद्रिनदीः । अटवीकाननसरसीमरुजलधिद्वीपभुवनानि ॥ स्कन्धावारनिवेशं क्रीडां यूनां यथायथं तेषु । व्यस्तमयं सन्ध्यां सतमसमथोदयं शशिनः ॥ रजनीं च यत्र यूनां समाजसङ्गीतपान-शृङ्गारान् । काव्यालङ्कार, १६.१३-१५ २. तु० — ऋतु रात्रिन्दिवर्केदूदयास्तमयकीर्तनः । १. ३. ४. कालः काव्येषु सम्पन्नो रसपुष्टि नियच्छति ॥ - सरस्वतीकण्ठाभरण, ५.१३१ तु० – राजकन्याकुमारस्त्रीसेनासेनाङ्गभङ्गिभिः । पात्राणां वर्णनं काव्ये रसस्रोतोऽधितिष्ठति ॥ वही, ५ . १३२ तु०—कुमारवाहनादिवर्णनम् । – काव्यानुशासन, अध्याय ८, पृ० ४५८
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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