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साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य
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कला कृतियों ने भी इस युग की काव्यसाधना को विशेष रूप से प्रभावित किया । रामायण-महाभारत कालीन सामाजिक मूल्य इस युग में यद्यपि हेय नहीं थे तथापि समसामयिक मूल्यों ने इन्हें गौण बना दिया था। सातवीं शताब्दी से १६वीं शताब्दी तक की काव्य चेतना में मधुशाला वर्णन, सलिल क्रीडा, रति क्रीडा प्रादि सामाजिक रूप से लोकप्रियता प्राप्त श्रेङ्गारिक वर्णनों के बिना काव्य अधूरे माने जाने लगे थे। इस प्रकार भारतीय साहित्य साधना कभी भी सामाजिक सांस्कृतिक चेतना से अछूती नहीं रही । धार्मिक चेतना इस साहित्य में प्रधान रूप से मुखरित हुई है तो राजनैतिक एवं युगीन सामन्तवादी मूल्यों का भी साहित्य सृजन पर विशेष प्रभाव पड़ा है ।
महाकाव्य एवं सामाजिक चेतना -
'महाकाव्य' साहित्य की वह महत्त्वपूर्ण विधा है जिसमें मानव जीवन की सर्वाङ्गीण गतिविधियों का लेखाजोखा विद्यमान रहता है। महाकाव्य चाहे पूर्व के हों या पश्चिम के, उत्तर के हों या दक्षिण के, इनकी प्रकृति तथा उद्देश्य भी समान रहते हैं । ' महाकाव्यों में महापुरुषों की महान् घटनाओं के चित्रण द्वारा कवि समाज का पथ प्रदर्शन करता है । महाकाव्यों की उदात्त एवं नैतिक राष्ट्रिय चेतना इन्हें समाज शास्त्रीय मूल्यों से जोड़ देती है। महाकाव्य का वीर नायक उन सभी नैतिक कार्यों के सम्पादन में सदैव तत्पर रहता है जिन्हें एक साधारण मनुष्य भी सम्पादित कर सकता है। महाकाव्य का लेखक एवं नायक अपने पूर्वपुरुषों के प्रादों का पालन करता हा एक सन्देशवाहक के रूप में जन साधारण को सामाजिक मूल्यों के प्रति सजग रखता है। संक्षेप में महाकाव्य के नायकीय प्रादर्श समाज के ऐसे अनुकरणीय आदर्श कहे जा सकते हैं जो सामाजिक अपेक्षा से निरूपित होते हैं।
विकसन शील एवं अलंकृत महाकाव्यों की दोनों धाराएं प्रत्येक देश में सामाजिक विकासात्मक प्रवाह के अनुसार ही निर्मित होती हैं। विकसनशील महाकाव्यों के कलेवर में शताब्दियों के सामाजिक मूल्य एवं आदर्श सुरक्षित रहते हैं। अलंकृत महाकाव्यों की अपेक्षा विकसनशील महाकाव्यों का सम्बन्ध अधिकांश वर्गों तथा समाज के व्यापक सन्दर्भो से जुड़ा होता है । इस कारण विकसनशील महाकाव्यों में राष्ट्रीय स्तर के मानवीय आदर्शों का प्रतिपादन रहता है, जबकि
१. Dixon, M., English Epic & Heroic Poetry, p. 24 २. शम्भूनाथ सिंह, हिन्दी साहित्य कोश, भाग-१, प्रधान सम्पा० डा० धीरेन्द्र
वर्मा, पृ० ६२७