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________________ साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य में यह सामाजिक चेतना स्पष्ट रूप से दृष्टिगत होती है। साम्प्रदायिक विभाजन के परिणाम स्वरूप साहित्य सृजन की प्रवृत्तियाँ भी विभाजित होती जाती हैं। रस परक साहित्य एवं वर्ग चेतना ईस्वी पूर्व की साहित्य रचनाओं में काव्य-नाटकों का विशेष प्रभाव था। रामायण एवं महाभारत तथा भास के तेरह नाटको के अतिरिक्त इस युग में और अधिक साहित्यिक ग्रन्थ नहीं लिखे जा सके थे। ईस्वी की प्रथम शताब्दी से लेकर छठी-सातवीं शताब्दी पर्यन्त का काल भारतीय काव्य सृजन का महत्त्वपूर्ण काल था। इसी काल में कालिदास, अश्वघोष, भवभूति, भारवि, बाण, दण्डी, सुबन्धु, विशाखदत्त एवं माघ जैसे प्रसिद्ध कवि एवं नाटककार हुये । वास्तव में इस युग में जितनी काव्य साधना हुई वह स्तर एवं परिमाण दोनों दृष्टियों से उत्कृष्ट थी। काव्य का काव्यशास्त्रीय स्वरूप भी इसी युग में रूढ हुआ। काव्य कला की दृष्टि से सातवीं शताब्दी तक का काव्य नैसर्गिक एवं सहजगुणों तथा अलङ्कारों से सुशोभित था । काव्य के विविध भेदों की कल्पना तथा कृत्रिम काव्य प्रयोग भी इसी युग की देन मानी जाती है। दृश्यकाव्य, महाकाव्य, गीतिकाव्य, स्तुतिकाव्य, गद्यकाव्य अर्थात् कथा एवं आख्यायिका आदि विविध काव्य भेदों के माध्यम से इस युग का साहित्य ऐश्वर्य सम्पन्न था। समसामयिक परिस्थितियों के सन्दर्भ में इस युग में राजनैतिक एवं धार्मिक स्थिरता विद्यमान थी। ब्राह्मण, जैन एवं बौद्ध संस्कृतियों के वर्ग स्थिर हो चुके थे क्योंकि इन तीन संस्कृतियों में धार्मिक चेतना नितान्त रूप से अपने अपने धर्मों के प्रति आस्थावान् बन चुकी थी। दूसरी ओर ईस्वी की प्रथम शताब्दी से लेकर सातवीं शताब्दी तक भारत की राजनैतिक परिस्थितयाँ भी रसपरक साहित्य निर्माण के लिये उपयुक्त वातावरण तैयार कर चुकी थीं। गुप्तकाल का स्वर्णयुग तो भारतीय काव्य का भी स्वर्णिम युग था। बौद्ध संस्कृति के अश्वघोषकृत सौन्दरनन्द, बुद्धचरित तथा जैन-संस्कृति के समन्तभद्रकृत स्वयम्भूस्तोत्र एवं रविषेणाचार्यकृत पद्मचरित आदि उत्कृष्ट काव्य रचनायें भी इसी युग की देन हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि भारतीय साहित्य का प्रेरणा स्रोत धर्म ही रहा है । ईस्वी की शताब्दियों के उपरान्त साहित्य विधा भी मूलतः धर्म से ही अनुप्राणित थी किन्तु उसका झुकाव काव्य शास्त्रीय सौन्दर्य की ओर अधिक था। अश्वघोष के काव्य बौद्ध धर्म का प्रचार व प्रसार करने के लिये ही लिखे गये। उधर कालिदास-भारवि आदि की काव्य साधना बैदिक संस्कृति से अनुप्रेरित थी तथा शव मत की ओर आकर्षित थी। इसी प्रकार अन्य ब्राह्मण संस्कृति से सम्बद्ध काव्यों, महाकाव्यों अथवा गीतिकाव्यों में कवि के आराध्य देव की स्तुति तथा अभीष्ट धार्मिक प्रवृत्तियों के प्रति विशेष आग्रह देखा जा सकता है। जैन संस्कृत महाकाव्य
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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