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________________ ३६ मुक्त कण्ठ से स्वीकार करेगा । १ सांस्कृतिक एकता के छिन्न-भिन्न होने में इस प्रकार की प्रतिक्रियात्मकक्रान्तिकारी शक्तियों का विशेष हाथ रहता है । यही कुछ बुद्ध पूर्ववर्ती भारतीय संस्कृति के साथ भी हुआ । ब्राह्मण एवं क्षत्रिय वर्ग की परस्पर संघर्षात्मक स्थिति को देखते हुए भगवान् महावीर एवं गौतम बुद्ध के नेतृत्व में ब्राह्मण संस्कृति की वर्ग चेतना और निर्बल होती गई । यह स्मरण रहे कि ब्राह्मण संस्कृति के समानान्तर उठी हुई जैन एवं बौद्ध संस्कृतियों के प्रादुर्भाव में क्षत्रिय वर्ग का विशेष हाथ था । इस प्रकार वर्ग चेतना के संघर्ष के कारण ही ईस्वी पूर्व की पांच छः शताब्दियों तक भारतीय समाज मुख्य रूप से तीन धाराओंों में विभक्त हो चुका था - १. ब्राह्मण संस्कृति २. बौद्ध संस्कृति एवं ३. जैन संस्कृति । इनमें भी ब्राह्मण संस्कृति सर्वाधिक प्रभावशाली थी और धर्मसूत्रादि विभिन्न साहित्य ग्रन्थों का ब्राह्मण संस्कृति से ही सम्बन्ध है । जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज ब्राह्मण संस्कृति के समान जैन एवं बौद्ध विचारकों ने भी धार्मिक साहित्यनिर्माण द्वारा अपने वर्गों को विशेष सुदृढ बनाया । इसलिये हम देखते हैं कि इन दोनों संस्कृतियों ने ईस्वी पूर्व की छठी शताब्दी से लेकर ईस्वी तक की उत्तरवर्ती तीन चार शताब्दियों तक आगम, जातक, निकाय, अवदान, आदि धार्मिक ग्रन्थों की रचनाऐं भी कर ली थीं । 'धर्म' किसी भी समाज की वर्ग चेतना को एकता के सूत्र में बाँधने में विशेष सहायक रहता है। जैन एवं बौद्ध साहित्यकार इस तथ्य को जानते इसलिए उनकी साहित्य - साधना भी सर्व प्रथम धार्मिक चेतना से ही अनुप्राणित एवं प्रेरित थी । ब्राह्मण धर्म का दूसरा परिवर्तित रूप धर्मसूत्रों, पुराणों तथा स्मृतिग्रन्थों में दर्शनीय है । प्राचीन काल से चले आ रहे धार्मिक मूल्यों का यद्यपि इन ग्रन्थों में निराकरण नहीं किया गया तथापि धर्मसूत्रों एवं पुराण ग्रन्थों में प्रतिपादित ब्राह्मण संस्कृति पहले की अपेक्षा भिन्न थी । पुराण ग्रन्थों में शिव, विष्णु तथा ब्रह्मा आदि का माहात्म्य बढ़ चुका था तथा भारत में शैव, वैष्णव, सौर, शाक्त आदि नवीन सम्प्रदाय अस्तित्व में आ गए थे। इसी प्रकार जैन एवं बौद्धधर्म भी बाद में विविध सम्प्रदायों में विभक्त होता गया तदनुसार उनके साहित्य में भी विभाजन अभिप्राय यह है कि मानव समाज वर्ग चेतना एवं वर्ग संघर्ष से सदैव प्रभावित होता आया है और जब कभी समाज में किसी वर्ग विशेष की उपेक्षा आदि के चिह्न गित होने लगते हैं तो उसमें विभाजन हो जाता है। भारतीय धार्मिक साहित्य १. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, पृ० ८६-८७ २ . वही, पृ० १०७-१०८
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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