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________________ साहित्य समाज और जैन संस्कृत महाकाव्य धार्मिक साहित्य एवं वर्ग चेतना वैदिक साहित्य से प्रारम्भ हुए भारतीय साहित्य के इतिहास में ब्राह्मण प्रारण्यकादि ग्रन्थों के बाद उपनिषद् आदि ग्रन्थों का सृजन हुमा । ब्राह्मण ग्रन्थों के रचनाकाल तक भारतीय जन-जीवन में वैदिक कर्मकाण्ड का एक महत्त्वपूर्ण स्थान बन चुका था। इसी युग में वर्ण व्यवस्था पूर्णरूप से विकसित हो चुकी थी तथा ब्राह्मण एवं क्षत्रिय समाज के दो शक्तिशाली वर्ग अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाए हुए थे । जब तक वैदिक संस्कृति आर्य संस्कृति के रूप में विकसित होती रही तब तक वर्ण व्यवस्था सहश धार्मिक विभाजन गतिशील नहीं था केवल मात्र वेदविरोधी कुछ शक्तियां अनार्य संस्कृति के रूप में संघर्ष शील थीं किन्तु जब ब्राह्मणादि ग्रन्थों का काल आया तो ब्राह्मण वर्ग एक शक्तिशाली वर्ग के रूप में उभरकर पाया और सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति में वैदिक कर्मकाण्डों तथा यज्ञानुष्ठानों की उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। समाज में धार्मिक चेतना के इस उत्कर्ष का तत्कालीन राजनैतिक जीवन पर प्रभाव पड़े बिना न रह पाया और एक समय ऐसा भी आया जब क्षत्रिय वर्ग को ब्राह्मणों का यह उत्कर्ष सह्य न रहा। क्षत्रिय वर्ग ने 'ब्रह्मविद्या' अथवा 'उपनिषद् विद्या' के द्वारा वैदिक कर्मकाण्ड से प्रभावित समाज को अपनी प्रोर आकर्षित करना चाहा। हिरियिन्ना महोदय इस मान्यता के विशेष पोषक विद्वान् हैं।' भगवत शरण उपाध्याय की यह मान्यता रही है कि ब्राह्मणादि ग्रन्थों तथा उपनिषद् आदि ग्रन्थों की रचना का मुख्य प्रयोजन क्रमशः ब्राह्मण वर्ग तथा क्षत्रिय वर्ग को प्रभावशाली बनाए रखना था। ब्राह्मणों तथा क्षत्रिय राजकुमारों का प्रान्तरिक संघर्ष ही इस साहित्य प्रवृत्ति को विशेष प्रभावित कर रहा था। प्रोपनिषदिक समाज की यही वह पृष्ठभूमि है जिस पर ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष जन्मा और फैला, जहाँ क्षत्रियों ने ब्राह्मण विधि-क्रियाओं और यज्ञानुष्ठानों के विरुद्ध विद्रोह किया। ब्राह्मणों के विरोध में उपनिषद् जन्मे और उनके प्रति विद्रोह में सांख्य वैशेषिक उठे । युग का क्रम बढ़ता चला-पाव-महावीर-बुद्ध पाए -तीनों अभिजातकुलीय, तीनों क्षत्रिय, तीनों ब्राह्मण-वेद विरोधी। वर्गों की ब्राह्मण व्यवस्था पर चोटें पड़ीं। इस युग की यह प्रबल देन है जिसे साहित्यकार 9. “The divergence between the two views as embodied in the Brāhmaṇas and the Upanişads respectively is now explained by some scholars as due to the divergence in ideals between the Brahmins and the Ksatriyas-the priests and princes of ancient India," --Hiriyanna, M., Outlines of Indian Philosophy, London, 1951, p. 49
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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