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________________ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज किया है। विश्वनाथ ने इन सभी तत्त्वों का समन्वय करते हुये मानवीकरण अथवा काव्य पुरुष के दृष्टान्त द्वारा काव्य के स्वरूप को समझाने का प्रयास किया है। यह दृष्टान्त यह स्पष्ट कर देता है कि वास्तव में काव्य का कोई एक लक्षण काव्य के स्वरूप के प्रतिपादन में असमर्थ है अपितु सभी सम्प्रदायों के काव्य लक्षण एक दूसरे के पूरक होकर काव्य के स्वरूप को बताने में समर्थ हैं। काव्यपुरुष के दृष्टान्त द्वारा शरीर, आत्मा, शौर्यादि गुण, श्रुतिकटुत्वादि दोष, अङ्गरचना तथा प्राभूषणादि सांकेतिक रूप से मानव समाज के महत्त्वपूर्ण अङ्गों पर प्रकाश डालते हैं । अभिप्राय यह है कि समाजशास्त्र' जिन जिन तत्त्वों को लेकर समाज का अध्ययन एवं विश्लेषण करता है उसी प्रकार काव्यशास्त्र भी विविध रस अलङ्कारादि तत्त्वों के द्वारा काव्य के स्वरूप को उद्घाटित करता है। इन दोनों शास्त्रों का अन्तिम प्रयोजन एक ही है-मानव समाज को शिष्ट बनाना तथा जनकल्याण की चेतना से उसका पथ प्रदर्शन करना। काव्य शास्त्र तथा समाज शास्त्र इसकी सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि है तो साहित्य एवं समाज उसका व्यावहारिक रूप है। समाज को प्रत्यक्ष रूप से कोई देखना चाहे तो वह वर्तमान समाज को ही देख सकता है परन्तु साहित्य एक ऐसा माध्यम है जिसमें वर्तमान के अतिरिक्त अतीत के समाज को भी हम दर्पण के समान देख पाते हैं। भारतीय साहित्य के निर्माण की पृष्ठभूमि और सामाजिक चेतना __ समाज शास्त्रीय दृष्टि से सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों के सन्दर्भ में प्राचीन भारतीय साहित्य की यदि समीक्षा की जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि युगीन वर्ग संघर्ष तथा राजनैतिक-धार्मिक परिस्थितियाँ साहित्य की दिशा को गति देती आई हैं। साथ ही उस वर्ग संघर्ष एवं सामाजिक अन्याय के प्रति साहित्य ने भी प्रतिक्रिया के स्वर को मुखरित किया है। विभिन्न संस्कृतियों की चेतना से प्रादुर्भत साहित्य की प्रवृत्तियाँ इसका प्रमाण हैं । १. तु०-(क) 'शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली' । काव्यादर्श, १.१० (ख) 'काव्यस्यात्मा ध्वनिः ।' ध्वन्यालोक, १.१ (ग) रीतिरात्माकाव्यस्य ।' काव्यालङ्कारसूत्र, १.२.६ (घ) 'शब्दाथों सहितौ काव्यम् ।' काव्यालङ्कार १.१६ (ङ) तददोषौ शब्दाथों सगुणावनलकृती पुनः क्वापि ।' -काव्यप्रकाश, १.४ (च) 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम् ।' साहित्यदर्पण, १.३, पृ० १६ २. तु०-'काव्यस्य शब्दाथों शरीरम्, रसादिश्चात्मा, गुणाः शौर्यादिवत्, दोषाः काणत्वादिवत्, रीतयोऽवयवसंस्थान-विशेषवत्, अलङ्काराः कटककुण्डलादिवत्' इति। -साहित्यदर्पण, १.२, पृ० १६
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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