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सिंहावलोकन
५४३ अतिरिक्त दुर्ग युद्ध, गुरिल्ला युद्ध आदि अनेक प्रकार की युद्ध कलापों एवं सामरिक तकनीकों में भारतीय सैनिक सिद्धहस्त थे । युद्धविद्या क्षत्रिय राजकुमारों की अनिवार्य शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण अंग बनी हुई थी। परन्तु युद्धों की भरमार तथा सामन्तवादी भोग-विलास की प्रवृतियों ने भारतीय सैनिकों को विलासी एवं प्रालसी बना दिया था। सजा अपनी रानियों को युद्ध क्षेत्र में साथ ले जाते थे तथा उनकी देखादेखी सैनिक भी अपनी पत्नियों को युद्ध में साथ ले जाने लगे । सैनिक शिविरों में वेश्यामों के पड़ाव डालने की परम्परा भी चल पड़ी थी। युद्ध के पूर्व सैनिकों की स्त्रियों के साथ भोगविलास में रत रहने आदि की श्रेङ्गारिक गतिविधियाँ इस तथ्य की ओर संकेत करती हैं कि मध्यकालीन सेना किस स्तर तक विलासितापूर्ण जीवन जी रही थी। इसी विलासिता पूर्ण वातावरण ने भारतीय सेना को कमजोर बनाने में एक मुख्य भूमिका निभाई है। इसके अतिरिक्त युद्धावसर पर मदिरापान करना, अन्ध-विश्वासी होना, युद्ध को एक व्यवसायमात्र मानना, सेनाओं में परस्पर फूट होना, राष्ट्रीय चेतना तथा नैतिक बल का अभाव होना आदि अन्य ऐसे भी कारण हैं जिनसे मध्यकालीन भारतीय सेना एक समृद्ध सेना होने के बाद भी विदेशी आक्रमणकारियों के सामने कमजोर सिद्ध हुई है। हालांकि राजस्थान आदि की राजपूत सेनाएं मातृभूमि की रक्षा के लिए मरमिटने की वीरोचित गरिमानों से प्रोतप्रोत रहने के कारण अपना चरित्र बहुत ऊंचा भी उठाए हुए थीं।
४. मध्यकालीन अर्थ व्यवस्था भूमि सम्पत्ति के हस्तान्तरण, कृषि-ग्रामों एवं शिल्प व्यवसायियों पर मध्यवर्ती लोगों द्वारा नियंत्रण से सामन्तवादी ढांचे को प्राप्त कर चुकी थी। राजसत्ता 'वसुधा उपभोग' के मूल्य से केन्द्रित रहती हुई
आर्थिक उत्पादन के मुख्य स्रोत कृषि-ग्रामों को ग्राम मुखियाओं, 'महत्तर'-'महत्तम' तथा 'कुटुम्बी' जनों के माध्यम से हथियाए हुई थी। ग्रामों पर अपने प्रशासकीय और राजकीय प्रभुत्व को बनाए रखने की हैसियत रखने वाले इन ग्राम-मुखियाओं कि स्थिति सामन्त राजाओं के समान बन गई थी। कृषि उत्पादन की भाँति शिल्प व्यवसाय को भी श्रेणि-गण-प्रधानों की सहायता से नियन्त्रित किया जा चुका था। शिल्प श्रेणियों के प्रधानों को राज-दरबारों में प्रतिष्ठित स्थान दिया गया था। प्रमुख उद्योग कृषि के अतिरिक्त पशु-पालन, वृक्ष-उद्योग आदि लगभग पचास उद्योग-व्यवसाय जीविकोपार्जन के साधन बने हुए थे । व्यापार सम्बन्धी गतिविधियाँ भी उन्नत अवस्था में थीं। वर्ण व्यवस्था के आधार पर व्यवसाय चयन को विशेष प्रोत्साहन प्राप्त था तथा साथ ही कुल परम्परा से प्राप्त व्यवसाय को विशेष वरीयता दी जाती थी। ब्राह्मण 'शास्त्रजीवी' के रूप में पौरोहित्य, दैवज्ञ आदि का व्यवसाय करते थे। 'शस्त्रजीवी' क्षत्रियों का मुख्य व्यवसाय था युद्ध करना। वैश्य तथा शूद्र 'कलाकौशलजीवी' के रूप मे रूढ़ हो चुके थे जिसके अन्तर्गत व्यापार, कृषि, शिल्प आदि व्यवसाय समाविष्ट थे। वर्ण