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________________ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज व्यवस्था के अनुरूप व्यवसायपरक जो चार संघटन प्राचीन काल चले आ रहे थे उनकी संख्या मध्यकाल में तीन ही रह गई थी । ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ग का अपना पृथक-पृथक् संघटन था जबकि वैश्य एवं शुद्र एक ही श्रेणि में श्रा चुके थे । 'कलाकौशलजीवी' के रूप में वैश्यों एवं शूद्रों का एक ही श्रेणि में संघटित हो जाना मध्यकालीन सामन्तवादी अर्थ व्यवस्था का ही परिणाम था। राजसत्ता कृषि उत्पादन तथा उसके वितरण जैसी महत्त्वपूर्ण आर्थिक गतिविधियों को शूद्रों एवं वैश्यों के एकीकृत संघटन द्वारा प्रोत्साहित किए हुए थी ताकि आर्थिक उत्पादन का उसे अधिकाधिक लाभ मिल सके । ५४४ ५. आवास व्यवस्था की दृष्टि से लगभग १२ प्रकार की आवासीय संस्थितियों का विशेष प्रचलन था । भौगोलिक परिस्थितियों तथा प्राथिक वर्गविभाजन की अपेक्षा से संस्थापित इन आवासीय संस्थितियों की संज्ञाएं थीं- ग्राम, नगर निगम, राजधानी, प्राकर, खेट, द्रोणमुख, मडम्ब, पत्तन, कवंट, सम्बाध तथा घोष । श्रार्थिक विकास के परिणामस्वरूप इन प्रावासीय संस्थितियों के स्वरूप में परिवर्तन भी होता रहा था। ग्राम नगरों का रूप धारण कर रहे थे तो खेट, मडम्ब, द्रोणमुख आदि भी देशकाल की परिस्थितियों के अनुरूप अपना स्वरूप बदल रहे थे। कुल मिलाकर मध्यकालीन आवास व्यवस्था नगर एवं ग्राम चेतना से अनुप्राणित रही थी परन्तु कृषि-ग्रामों को प्रार्थिक महत्त्व मिलने के कारण निगम चेतना को भी विशेष प्रोत्साहन मिल रहा था। 'निगम' के रूप में संघटित कृषि ग्राम 'भक्तग्राम' के रूप में निर्दिष्ट हुए हैं जिनमें उत्पादित फसलों का भण्डार संरक्षित किया जाता था तथा व्यापारिक ग्राम के रूप में इनकी स्थिति बनी हुई थी । प्रार्थिक रूप से समृद्ध होने के कारण इन 'निगम' ग्रामों की वास्तुशास्त्रीय संरचना नगरों से भी मिलती जुलती थी । इतिहासकारों ने 'निगम' को 'व्यापारियों के संघटित समूह' के रूप में निरूपित करने की जो चेष्टा की है जैन महाकाव्यों के 'निगम' सम्बन्धी तथ्य उसको भ्रामक तथा प्रयुक्तिसंगत सिद्ध कर देते हैं । वस्तुतः प्राचीनकाल से लेकर मध्यकाल तक 'निगम' सम्बन्धी जितने भी साहित्यिक एवं ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं उनसे यह सिद्ध नहीं होता है कि 'निगम का अर्थ कभी भी 'व्यापारियों का संघटित समूह' रहा होगा । बौद्धकाल से लेकर प्रालोच्य काल तक 'निगम' प्रार्थिक दृष्टि से सदैव विकासोन्मुखी प्रावासीय संस्थिति के रूप में ही अपना चरित्र बनाए हुए थे । सामन्तवादी अर्थव्यवस्था के दौर में इनकी स्थिति विकास के चरम बिन्दु पर पहुँच चुकी थी तथा कृषिमूलक अर्थव्यवस्था के ये प्रधान नियामक केन्द्र भी बन गये थे । समग्र अर्थव्यवस्था को केन्द्रित एवं नियोजित करने के कारण ही इन्हें 'भक्तग्राम' की संज्ञा दी गई है । रहन सहन एवं वेशभूषा की दृष्टि से मध्यकालीन समाज के जिस प्रार्थिक स्तर की परिकल्पना साकार हुई है उससे प्रतीत होता है कि ऐश्वर्य सम्पन्न उच्च
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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