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स्त्रियों की स्थिति तथा विवाह संस्था
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(ख) विवाह संस्था
समाजशास्त्रीय दृष्टि से 'विवाह संस्था' भारतीय समाज व्यवस्था की एक आधारभूत 'संस्था' है । विवाह स्त्री और पुरुष के मध्य सम्पादित होने वाला मात्र एक धार्मिक अनुबन्ध हो नहीं अपितु जाति यह एवं कुल की मर्यादानों को नियोजित करने वाला सामाजिक सम्बन्ध भी है । धर्मशास्त्रकारों ने वर्णव्यवस्था को आधार मानकर पुरुष द्वारा उच्च अथवा निम्न वर्ण की स्त्रियों से विवाह करने के कारण प्रतिलोम तथा अनुलोम विवाहों की जो व्यवस्था दी है उसके सन्दर्भ में यद्यपि यह भी धारणा प्रचलित रही है कि ये विधिवत् विवाह न होकर केवल सम्मिलन मात्र थे, परन्तु मनु, गौतम, याज्ञवल्क्य आदि विचारकों ने स्वजाति विवाह को ही वैधानिक मान्यता नहीं प्रदान की है ग्रपितु वे अनुलोमादि विवाहों को भी वर्जित नहीं मानते । '
प्राचीन भारतीय विवाह संस्था के सन्दर्भ में ब्राह्म, देव, प्राजापत्य, प्रार्ष, राक्षस, असुर, गान्धर्व तथा पैशाच – ये आठ प्रकार के विवाह विशेष रूप से प्रसिद्ध रहे हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर वेदों में इन प्रष्ट - विघ विवाहों का उल्लेख नहीं मिलता तथा सर्वप्रथम प्राश्वलायन गृह्यसूत्र में ही इनकी चर्चा आई है । अन्य धर्मसूत्र ग्रन्थों तथा महाभारत में भी इनकी चर्चा की गई है। परवर्ती स्मृति ग्रन्थों में भी इन प्रष्टविध विवाहों का उल्लेख श्राया हैं । " वर्ण व्यवस्था की दृष्टि से ब्राह्म, प्राजापत्य, श्रार्ष तथा देव विवाह ब्राह्मणों के लिए, राक्षस तथा गान्धर्व क्षत्रियों के लिए, आसुर वैश्यों के लिए तथा पैशाच शूद्रों के लिए विहित थे ।
१. पी० वी० काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृ० ११८-२२
२.
Gupta, Nilakshi Sen, Evolution of Hindu Marriage, Bombay, 1965, p. 95
३. वही, पृ० ८७-८८
४.
५.
६.
Meyer, J. J., Sexual life In Ancient India, Delhi, 1971, p. 55 Pandey, Raj Bali, Hindu Samskāras, Delhi, 1969, pp. 159-69 Gupta, Evolution of Hindu Marriage, p. 96