SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 513
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७६ स्त्रियों को स्थिति तथा विवाह संस्था करते थे।' सहवास आदि अवसरों पर कामशक्ति को उद्दीप्त करने तथा उसके क्रम को निरन्तर बनाए रखने की अपेक्षा से भी मदिरापान को एक रामबाण श्रौषधि के रूप में प्रयोग करने की मान्यता प्रचलित थी । धर्मशर्माभ्युदय में तिक्रीडा को देर तक चलाए रखने के लिए मद्यपान की सराहना की गई है । 3 मधुपान करने से वनिताएं विशेष रूप से कामविह्वल हो उठती थीं तथा उन्हें अपने शरीर की भी सुध नहीं रहती थी। पुरुषों में भी मधुपान द्वारा वस्त्रों के अस्त व्यस्त होने, लड़खड़ा कर चलने, अस्पष्ट बोलने, पृथ्वी पर पुनः पुनः गिरने जैसी बाल चेष्टाएं वरिणत हैं । ५ मधुपान करने के उपरान्त स्त्रियों का रंग लाल हो जाता था तथा वे टूटे फूटे शब्दों में बोलने लगती थीं। इस प्रकार तत्कालीन समाज में दम्पतियों में परस्पर स्वच्छन्दचारिता तथा निर्लज्ज काम - चेष्टाओं के मूल्य स्त्रियों तथा पुरुषों के यौन सम्बन्धों को प्रभावित किए हुए थे । ७ तथा इन १. प्रथ मन्मथज्वलन वृद्धिविधाविव सर्पिरर्पितमनः प्रमदम् । विशदं सुगन्धि सरसं शिशिरं मधु पातुमारभत कामिजनः ॥ — नेमि०, १०.१ तथा पीतमात्रमपि मैथुनोद्यमे कस्य कस्य न हि कम्पमातनोत् । - वसन्त०, ८.५६ २. इतरेतरं मुखसुराग्रहणक्षणचुम्बनोपचितभावभः । सपदि प्रसारितभुजामिलितं मिथुन रतन्यत रताय मनः । नेमि०, १०.१६ तथ न वितृष्णतामुपययो मदिरासलिलं पिबन्नपि स कामिजनः । - वही, १०.१३ ३. भूरिमद्यरसपानविनोदेर्गाढशून्यहृदयानि तदानीम् । कान्यपि स्म मिथुनानि न वेगात्प्राप्नुवन्ति रतिकेलि समाप्तिम् ।। धर्म०, १५.६३ ७. — ४. उत्तरीयमपकर्षति नाथे प्रावरिष्ट हृदयं स्वकराभ्याम् । अन्तरीयमपरा पुनराशुभ्रष्टमेव न विवेद नितम्बात् ॥ सुभ्रुवा दयितया च चुम्बनालिङ्गनैविकसदङ्गसम्पदा । अन्तरीयमगलन्नितम्बतः कञ्चुकस्य गृहकारिण तुत्रुटुः ।। - धर्म०, १५.३१ – वसन्त०, ८.५७ तथा धर्म०, १५.२० -२६ ५. प्रसमग्रवाग्भिरवधूत गलद्वसनैर्घ रापतनधूसरितः । मधुपानलोयवशतो विशेरनुभूयते स्म तरुणैः शिशुता ॥ नेमि०, १०.३ ६. प्ररुणेक्षया सपदि । नेमि०, १०.१५; धर्म०, १५.६, तथा त्यज्यतां पिपिपिपिप्रिय पात्रं दीयतां मुमुमुखासव एव । च्युतलज्जं कामिनां रतपूर्वमिवासीत् । - धर्म०, १५.२२ - वही, १५.५६
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy