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________________ ४७६ जैन संस्कृत महाकाव्यों में भारतीय समाज करने की अनुमति नहीं दी।' वराङ्गचरित में पुत्रवधू तथा श्वसुर राजा महासेन के मध्य जो विचारों का प्रादान-प्रदान हुअा उससे प्रतीत होता है कि पुत्रवधुएं निःसंकोच होकर बोल सकती थीं तथा अपने निश्चय को बताने का उनमें पर्याप्त साहस भी होता था । किन्तु यह साहस शिष्टाचार से पूर्ण कुलस्त्री की मर्यादानों के अनुरूप ही था । श्वसुर की आज्ञानुसार सभी पुत्रवधुनों ने अग्निप्रवेश करने के अपने निश्चय को त्याग दिया तथा धर्माचरण में चित्त लगाना प्रारम्भ कर दिया । परिवार में पुत्रवधू अपने विचारोद्घाटन के लिए यद्यपि स्वतन्त्र थी किन्तु वह अपने से बड़े लोगों की प्राज्ञा का उल्लङ्घन नहीं कर सकती थी। पत्नी के रूप में स्त्री जैन संस्कृत महाकाव्यों में आदर्श पत्नियों के अनेक उदाहरण उपलब्ध होते हैं । पति तथा पत्नी के मध्य सौहार्दपूर्ण वातावरण तथा पारस्परिक अनुराग भावना प्रादि वैशिष्ट्य आदर्श दाम्पत्य जीवन के मूलाधार माने गए हैं। वराङ्गचरित महाकाव्य में राजा वराङ्ग तथा उसकी अनेक पत्नियों के मध्य मधुर सम्बन्ध थे । प्रायः रानियाँ राजा के आदेशों का पालन करते हुए ही पतिव्रता के मार्ग का अनुसरण करती थीं। चन्द्रप्रभचरित के कनकप्रभ तथा सुवर्णमाला एवं अजितसेन तथा शशिप्रभा आदि दम्पत्तियों के मध्य भी दाम्पत्य जीवन वासनात्मक प्रेम पर आधारित न होकर विशुद्ध प्रेम पर ही प्राधारित था। प्रद्युम्नचरित महाकाव्य में रुक्मिणी तथा कृष्ण का दाम्पत्य जीवन विलासात्मक क्रीडामों १. वराङ्ग०, १५.६४-६५ २. वराङ्ग०, १५.५१-५२, तथा ६१.६२ ३. इत्युक्ता भूभुजा साध्वी श्वसुरं धर्मवत्सलम् । यस्त्वया शिष्यते धर्मः स एवोपास्यते मया ॥ -वराङ्ग०, १५.७० ४. वराङ्ग०, २.६०-६३, नेमि०, १०.४५-४६ ५. वराङ्ग०, २.६०-६३ ६. दाक्षिण्यवेविनयोपचारजहार चेतः सततं स्वभर्तुः । -वराङ्ग०, १६.३५ . ७. बभूव लक्ष्मी पुरुषोत्तमस्य सा मृगेक्षणा तस्य नृपस्य मन्दिरे । -चन्द्र०, १.५७ ८. चन्द्र०, ६.७२
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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