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________________ ४७५ स्त्रियों की स्थिति तथा विवाह संस्था श्रावश्यक था कि वह सुशील, सर्वगुणसम्पन्न तथा ललित कलाओं में निपुण हो । विवाह की दृष्टि से उसे कुछ स्वतन्त्रता भी मिली हुई थी किन्तु पूर्व-नियोजित विवाह प्रकारों में माता-पिता पर ही इसका दायित्व होता था । कुछ प्रेम-विवाहों के प्रचलन होने का भी उल्लेख आया है फलतः अनुमान किया जा सकता है कि कन्या स्वयं भी विवाह योग्य वर का चयन करने में पूर्णतः स्वतन्त्र मानी जाने लगी थी । कभी-कभी माता-पिता कन्या के इस प्रेम भाव को जान कर विवाह में कोई बाधा उत्पन्न नहीं करते थे । ' कन्याएं किसी पराक्रमी एवं रूप-सौन्दर्य की दृष्टि से आकर्षक युवक के साथ गान्धर्व विवाह की इच्छा भी रखती थीं । वराङ्गचरित महाकाव्य में राजकुमार वराङ्ग पर मुग्ध मनोरमा अपनी सखी के माध्यम से प्रेम-विवाह का प्रस्ताव भिजवाती है । इसी प्रकार चन्द्रप्रभ महाकाव्य में राजकुमारी शशिप्रभा भी नगर में आए राजकुमार से प्रेम करने लगी थी। इस प्रकार कन्या के रूप में पूर्णतः पारिवारिक नियन्त्रण में रहने पर भी नारी को प्रेम विवाह आदि की छूट दी जा सकती थी । पुत्रवधू के रूप में स्त्री वङ्गचरित महाकाव्य में श्वसुर तथा पुत्रवधू मध्य परस्पर वार्तालापों द्वारा तत्कालीन पुत्रवधू की स्थिति का अनुमान लगाना सहज है । " पुत्रवधुएं श्वसुर की कुटुम्ब का मुखिया मानती थीं। पति की अनुपस्थिति में कोई भी कार्य श्वसुर की अनुमति के बिना नहीं किया जाता था । राजकुमार वराङ्ग के लापता हो जाने पर उसकी सभी पत्नियाँ शोकाकुल होकर श्वसुर के पास पहुंचीं तथा अग्नि प्रवेश द्वारा प्राणान्त करने की अनुमति मांगी । किन्तु श्वसुर ने ऐसा १. २. चन्द्र०, ६.७०-७१ यथा यथा तं मनसा स्मरामि मृगेन्द्रविक्रान्तमनङ्गरूपम् । तथा तथा मां प्रदहत्यनङ्गः कुरुष्व तच्छान्तिकरं वयस्ये || ३. वही, १६.५८ ६४ ४. चन्द्र०, ६.४५-७० ५. वराङ्ग०, १५.४८-७० ६. वराङ्ग०, १५.५१-५२ ७. — वराङ्ग०, १६.५७ न जीवितुमितः शक्ता विना नाथेन पार्थिव । त्वया प्रसादः कर्त्तव्यः पावकं प्रविशाम्यहम् ।। - वही, १६.६२
SR No.023198
Book TitleJain Sanskrit Mahakavyo Me Bharatiya Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohan Chand
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year1989
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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