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स्त्रियों की स्थिति तथा विवाह संस्था
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उपयोगिता प्रतीत होने लगी थी। उच्च वर्ग की स्त्रियाँ सौन्दर्य प्रसाधन के रूप में अनेक प्रकार की बहुमूल्य वस्तुओं का प्रयोग करती थीं। दूसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी थी कि किसी राजकुमारी के विवाहादि अवसरों पर अत्यधिक मात्रा में दान-दहेज आदि का व्यवहार होता था ।3 दान के रूप में धन-सम्पत्ति के अतिरिक्त अनेक शिल्पी, दास-दासियाँ, कलाकार तथा ग्रामादि दान में दिए जाते थे। ग्रामादि तथा शिल्पादि को दहेज के अवसर पर उपहार के रूप में देने के कारण भी मध्यकालीन भारतीय आर्थिक व्यवस्था में सम्पत्ति के हस्तान्तरण एवं विकेन्द्रीकरण की स्थिति सुदृढ़ होती गई थी। इस प्रकार सम्पत्ति की अवधारणा के साथ नारी मूल्यों का घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित हो गया था। सामन्तवादी अर्थ चेतना की दृष्टि से सम्पत्ति का उपभोग करने वाले प्राभिजात्य वर्ग एवं उनके लिए श्रम करने वाले श्रमिक वर्ग जैसे दो वर्गों का अस्तित्व बना हुआ था वैसे ही नारी समाज में भी इसी अर्थ चेतना के प्राग्रह से एक ओर उच्चवर्ग की स्त्रियाँ थीं तो दूसरी ओर दासी और परिचारिकानों का कार्य करने वाली निम्नवर्गीय नारियों का समाज भी संघटित हो चुका था। प्रार्थिक व्यवसाय तथा जीवन यापन करने की दृष्टि से निम्न वर्ग की स्त्रियां राजप्रासादों में सेविका के रूप में कार्य करती थीं। वेश्या तथा नर्तकी के रूप में भी स्त्री अपना व्यावसायिक महत्त्व बनाए हुए थी।
परिवार में स्त्री का स्थान माता के रूप में स्त्री
माता के रूप में स्त्री प्राचीन काल से ही अपनी महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा बनाए हुए थी। माता को समाज में गुरु से भी अधिक सम्मान प्राप्त था। मालोच्य काल में भी इसी रूप में माता पूजनीय तथा सम्माननीय रही थी। माता के
१. विशेष द्रष्टव्य, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ३०० २. वराङ्ग०, १५.५७-६१ तथा पद्मा०, ६.५३-६३ ३. वराङ्ग०, १६.२१-२३ ४. प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० १६८ ५. ततो वामनिकाः कुब्जा धात्र्यः सपरिचारिकाः । -वराङ्ग०, १५.३६ . ६. मातृदेवो भव । -तैत्तिरीय उपनिषद्, १.११.२ ७. प्राचार्यः श्रेष्ठः गुरूणां मातेत्येके । -गौतमधर्मसूत्र, २.५० ८. परि०, १३.५-६